Thursday, June 28, 2007

पंचायत



दरवाजे पे देर रात बाप ने साँकल बजाया,
लड़खड़ाते कदमोँ से घर में दाखिल हुआ।



आधी रात तक माँ का आँचल भीगता रहा,
अँधेरे में बच्चों का बचपन खोता रहा।



चूल्हा रात भर गर्म होने का इन्तज़ार करता रहा।




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कल मुहल्ले में बारात आयी थी,
सुबह, दुल्हन सबसे लिपट के रोयी।



दर्द की वजह का तो पता नहीं पर,
पडोस के बंद कमरे में एक तकिया भीगता रहा,



एक लड़का नौकरी की तलाश में कहीं बाहर जा रहा है.

Wednesday, June 27, 2007

कहाँ की गूँज दिल-ए-नातवाँ में रहती है \ अहमद मुश्ताक़


कहाँ की गूँज दिल-ए-नातवाँ में रहती है
कि थर-थरी सी अजब जिस्म-ओ-जाँ में रहती है

[दिल-ए-नातवाँ = कमज़ोर दिल; जिस्म = शरीर]


मज़ा तो ये है कि वो ख़ुद तो है नये घर में
और उस की याद पुराने मकाँ में रहती है


अगरचे उस से मेरे बेतकल्लुफ़ी है बहुत
झिझक सी एक मगर दरमियाँ में रहती है

[बेतकल्लुफ़ी = सहजता; झिझक = हिचक; दरमियाँ = बीच]


पता तो फ़स्ल-ए-गुल-ओ-लाला का नहीं मालूम
सुना है क़ुर्ब-ओ-वार-ए-ख़िज़ाँ में रहती है

[फ़स्ल-ए-गुल-ओ-लाला = फ़ूलों का मौसम; ख़िज़ाँ = पतझर]


मैं कितना वहम करूँ लेकिन इक शुआ-ए-यक़ीं
कहीं नवाह-ए-दिल-ए-बद-गुमाँ में रहती है

[वहम = शक; शुआ-ए-यक़ीँ = विश्वास की किरण]
[नवाह = वातावरण; दिल-ए-बद-गुमाँ = संशय करने वाला दिल]


हज़ार जान खपाता रहूँ मगर फिर भी
कमी सी कुछ मेरे तर्ज़-ए-बयाँ में रहती है

[तर्ज़-ए-बयाँ = बोलने\अभिव्यक्ती का तरीका]

Tuesday, June 26, 2007

काश मैं तेरे हसीन हाथ का कन्गन होता /वसी शाह


काश मैं तेरे हसीन हाथ का कन्गन होता

तू बड़े प्यार से बड़े चाओ से बड़े अरमान के साथ
अपनी नाज़ुक सी कलाई में चढ़ाती मुझ को
और बेताबी से फ़ुर्क़त के ख़िज़ाँ लम्हों में
तू किसी सोच में डूबी जो घुमाती मुझ को
मैं तेरे हाथ की ख़ुश्बू से महक सा जाता
जब कभी मूड में आ कर मुझे चूमा करती
तेरे होंठों की शिद्दत से मैं दहक सा जाता

रात को जब भी तू नीन्दों के सफ़र पर जाती
मर्मरी हाथ का इक तकिया बनाया करती
मैं तेरे कान से लग कर कई बातें करता
तेरी ज़ुल्फ़ों को तेरे गाल को चूमा करता
जब भी तू बन्द क़बा खोलने लगती जानाँ
अपनी आँखों को तेरे हुस्न से खेरा करता
मुझ को बेताब सा रखता तेरी चाहत का नशा
मैं तेरी रूह के गुलशन में महकता रहता
मैं तेरे जिस्म के आँगन में खनकता रहता
कुछ नहीं तो यही बेनाम सा बन्धन होता

काश मैं तेरे हसीन हाथ का कन्गन होता

पत्थर सुलग रहे थे कोई नक़्श-ए-पाअ न था \ मुमताज़ राशिद




पत्थर सुलग रहे थे कोई नक़्श-ए-पाअ न था
हम उस तरफ़ चले थे जिधर रास्ता न था


परछाइयों के शहर की तन्हाईयाँ न पूछ
अपना शरीक-ए-ग़म कोई अपने सिवा न था


यूँ देखती है गुमशुदा लम्हों के मोड़ से
इस ज़िन्दगी से जैसे कोई वास्ता न था


चेहरों पे जम गई थीं ख़यालों की उलझनें
लफ़्ज़ों की जुस्तजू में कोई बोलता न था


ख़ुर्शीद क्या उभारते दिल की तहों से हम
इस अन्जुमन में कोई सहरआशना न था

Monday, June 25, 2007

दयार-ए-ग़ैर में कैसे तुझे सदा देते \ वसी शाह


दयार-ए-ग़ैर में कैसे तुझे सदा देते
तू मिल भी जाता तो तुझे गँवा देते

[दयार-ए-ग़ैर=अनजान जगह; गँवा देना=खो देन]


तुम्हीं ने हम को सुनाया न अपना दुख वरना
दुआ वो करते के हम आसमान हिला देते


हमें ये ज़ोम रहा अब के वो पुकारेंगे
उन्हें ये ज़िद थी के हर बार हम सदा देते

[ज़ोम=छलावा]


वो तेरा ग़म था के तासीर मेरे लहजे की
के जिस को हाल सुनाते उसे रुला देते

[तासीर=प्रभाव; लहजा=तरीका]


तुम्हें भुलाना ही अव्वल तो दस्तारस में नहीं
जो इख़्तियार भी होता तो क्या भुला देते

[अव्वल=सबसे पहले; दस्तारस=पहुँच; इख़्तियार=नियंत्रण]


तुम्हारी याद ने कोई जवाब ही न दिया
मेरे ख़याल के आँसू रहे सदा देते


सम'तों को मैं ता-उम्र कोसता शायद
वो कुछ न कहते मगर होंठ तो हिला देते

[सम'तों=सुनने कि शक्ती; ता-उम्र=ज़िन्दगी भर]

Sunday, June 24, 2007

चाँद सितारों से क्या पूछूँ कब दिन मेरे फिरते हैं \ आबिद अली 'आबिद'


चाँद सितारों से क्या पूछूँ कब दिन मेरे फिरते हैं
वो तो बेचारे ख़ुद हैं भिखारी डेरे डेरे फिरते हैं

जिन गलियों में हम ने सुख की सेज पे रातें काटी थीं
उन गलियों में व्याकुल होकर साँझ सवेरे फिरते हैं

रूप-सरूप की जोत जगाना इस नगरी में जोखिम है
चारों खूँट बगूले बन कर घोर अन्धेरे फिरते हैं

जिन के शाम-बदन साये में मेरा मन सुस्ताया था
अब तक आँखों के आगे वो बाल घनेरे फिरते हैं

कोई हमें भी ये समझा दो उन पर दिल क्यों रीझ गया
तीखी चितवन बाँकी छबि वाले बहुतेरे फिरते हैं

इस नगरी में बाग़ और बन की यारो लीला न्यारी है
पंछी अपने सर पे उठाकर अपने बसेरे फिरते हैं

लोग तो दामन सी लेते हैं जैसे हो जी लेते हैं
'आबिद' हम दीवाने हैं जो बाल बिखेरे फिरते हैं

Thursday, June 21, 2007

साफ़ ज़ाहिर है निगाहों से कि हम मरते हैं \ अख्तर अन्सारी


साफ़ ज़ाहिर है निगाहों से कि हम मरते हैं
मुँह से कहते हुये ये बात मगर डरते हैं



एक तस्वीर-ए-मुहब्बत है जवानी गोया
जिस में रन्गों की इवज़ ख़ूं-ए-जिगर भरते हैं

[इवज़ = की जगह]


इशरत-ए-रफ़्ता ने जा कर न किया याद हमें
इशरत-ए-रफ़्ता को हम याद किया करते हैं

[इशरत-ए-रफ़्ता=बीते दिनों की खुशी]


आस्माँ से कभी देखी न गई अपनी ख़ुशी
अब ये हालात हैं कि हम हँसते हुए डरते हैं


शेर कहते हो बहुत ख़ूब तुम "अख्तर" लेकिन
अच्छे शायर ये सुना है कि जवाँ मरते हैं

Wednesday, June 20, 2007

तुम्हारे ग़म का मौसम है अभी तक \ अनीस अन्सारी








तुम्हारे ग़म का मौसम है अभी तक
लब-ए-तश्ना पे शबनम है अभी तक

[लब-ए-तश्ना = प्यासे होंठ]

सफ़र में आबले ही आबले थे
मगर पैरों में दम-ख़म है अभी तक

[आबला = फ़फ़ोले; दम-ख़म = ताक़त/शक्ती]

तुम्हारे बंद दर मुझ से ख़फ़ा हैं
मेरे जीने का मातम है अभी तक

[दर = दरवाजा; ख़फ़ा = क्रोधित; मातम = शोक]

तेरी आब-ओ-हवा रास आ गई थी
बिछड़ जाने का कुछ ग़म है अभी तक

[आब-ओ-हवा = वातावरण; रास आना = अच्छा लगना]

गई रुत में हुई थी फ़सल अच्छी
इधर पानीइ गिरा कम है अभी तक

[रुत = मौसम; फ़सल = खेती]

मैं ख़ुद को ढूँढता फिरता हूँ सब में
जुनूँ का इक आलम है अभी तक

Tuesday, June 19, 2007

आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनायेँ हम \ अख्तर उल ईमान






आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनायेँ हम

आती नहीं कहीं से दिल-ए-ज़िन्दा की सदा
सूने पड़े हैं कूचा-ओ-बाज़ार इश्क़ के
है शम-ए-अन्जुमन का नया हुस्न-ए-जाँ गुदाज़
शायद नहीं रहे वो पतन्गों के वलवले
ताज़ा न रख सकेगी रिवायात-ए-दश्त-ओ-दर
वो फ़ित्नासर गये जिन्हें काँटें अज़ीज़ थे

अब कुछ नहीं तो नीन्द से आँखें जलायेँ हम
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनायेँ हम

सोचा न था कि आयेगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें
क्या जाने अब न उल्फ़त-ए-देरीना याद आये
इस हुस्न-ए-इख़्तियार पे आँखें झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़
सन्भले हुए तो हैं. पर ज़रा डगमगा तो लें

[जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत=प्यार कि मृत्यु का आनंद]
[गुदाज़=पिघला हुआ; वलवले=जोश; फ़ित्नासर=पागल]
[उल्फ़त-ए-देरीना=पुराना प्यार]

Thursday, June 14, 2007

निगाह-ए-साक़ी-ए-नामहरबाँ ये क्या जाने / मजरूह सुल्तानपुरी





निगाह-ए-साक़ी-ए-नामहरबाँ ये क्या जाने
कि टूट जाते हैं ख़ुद दिल के साथ पैमाने


मिली जब उनसे नज़र बस रहा था एक जहाँ
हटी निगाह तो चारों तरफ़ थे वीराने


हयात लग़्ज़िशे-पैहम का नाम है साक़ी
लबों से जाम लगा भी सकूँ ख़ुदा जाने


वो तक रहे थे हमीं हँस के पी गए आँसू
वो सुन रहे थे हमीं कह सके न अफ़साने


ये आग और नहीं दिल की आग है नादाँ
चिराग़ हो के न हो जल बुझेंगे परवाने


फ़रेब-ए-साक़ी-ए-महफ़िल न पूछिये "मजरूह"
शराब एक है बदले हुए हैं पैमाने

दिल में दर्द आह बलब चश्म गुहरबार लिये / अख्तर संदेलवी




दिल में दर्द आह बलब चश्म गुहरबार लिये
यूँ जिया जाता है ऐ दोस्त तो फिर कौन जिये

ख़ून है हर ग़म-ए-हस्ती का हमारे सिर पर
हम ग़म-ए-इश्क़ के मारों ने बड़े पाप किये

चाँद के चेहरे पे मख़्मूर ग़िलाफ़ी आँखें
सन्ग-ए-मर्मर के हसीं ताक़ों में जलते हैं दिये

मैं था बे-सरो-सामाँ बहुत साफ़ बचा
राह में राहनुमाओं ने बड़े दाव किये

जब से आग़ोश-ए-ग़म-ए-ज़ीस्त में आ बैठा हूँ
ढूँढते फिरते हैं क़ासिद तेरे पैग़ाम लिये

रश्क से देखते हैं तुझ को कई ज़ोह्राजबीं
हम निकलते हैं जब हाथों में तेरा हाथ लिये

पहले तश्वीश सुकून-ए-दिल व जाँ थीं 'अख्तर'
अब परेशाँ हूँ अफ़कार परेशाँ के लिये

Tuesday, June 12, 2007

अमन का जो पैग़ाम सुनाने वाले हैं \ माजिद देवबंदि



अमन का जो पैग़ाम सुनाने वाले हैं
गलियों-गलियों आग लगाने वाले हैं

तुम ले जाओ नेज़ा ख़न्जर और तल्वार
हम मक़्तल में सर ले जाने वाले हैं

[नेज़ा= भाला; मक़्तल=वधस्थल]

ज़ुल्म के काले बादल से डरना कैसा
ये मौसम तो आने जाने वाले हैं

बीमारों का अब तो ख़ुदा ही हाफ़िज़ है
सारे मसीहा ज़हर पिलाने वाले हैं

जान बचाने वाले तो सब हैं लेकिन
अब कितने इमान बचाने वाले हैं

हम को उन वलियों की निस्बत हासिल है
दश्त को जो गुलज़ार बनाने वाले हैं

भूखा रह के साइल को ख़ैरात जो दे
हम भी 'मजिद' उसी घराने वाले हैं

[साइल = भिखारी]

Monday, June 11, 2007

अपनी ज़ुल्फ़ों को सितारों के हवाले कर दो / अब्दुल हमीद आदम





अपनी ज़ुल्फ़ों को सितारों के हवाले कर दो
शहर-ए-गुल बादागुसारों के हवाले कर दो

[बादागुसारों = शराबियों]

तल्ख़ि-ए-होश हो या मस्ती-ए-इदराक-ए-जुनूँ
आज हर चीज़ बहारों के हवाले कर दो

[तल्ख़ी-ए-होश = सत्य की कटुता]
[इदराक-ए-जुनूँ = दिमाग का पागलपन]

मुझ को यारो न करो रहनुमाओं के सुपुर्द
मुझ को तुम रहगुज़ारों के हवाले कर दो

[रहनुमा = पथ प्रदर्शक; सुपुर्द = कि देख रेख में]
[रहगुज़ार = यात्री/पथिक]

जागने वालों का तूफ़ाँ से कर दो रिश्ता
सोने वालों को किनारों के हवाले कर दो

मेरी तौबा का बजा है यही एजाज़ "आदम"
मेरा साग़र मेरे यारों के हवाले कर दो

[बजा = वास्तविक; एजाज़ = सम्मान; साग़र = (यहाँ) शराब का प्याला]

अपने साये से भी अश्कों को छुपा कर रोना / निसार तरीन ज़ाज़िब


अपने साये से भी अश्कों को छुपा कर रोना
जब भी रोना हो चराग़ों को बुझा कर रोना

हाथ भी जाते हुये वो तो मिलाकर न गया
मैं ने चाहा जिसे सीने से लगा कर रोना

तेरे दीवाने का क्या हाल किया है ग़म ने
मुस्कुराते हुये लोगों में भी जा कर रोना

लोग पढ़ लेते हैं चेहरे पे लिखी तहरीरें
इतना दुश्वार है लोगों से छुपा कर रोना

Sunday, June 10, 2007

दालानों में कमरों में उलझाये हुये रखना \ अन्जुम इरफ़ानी



दालानों में कमरों में उलझाये हुये रखना
कुछ काम में अपने को बहलाये हुये रखना

दुनिया के मसाइल में उलझा हुआ जब आऊँ
तुम घर के मसाइल को सुलझाये हुये रखना

सन्दूक के कपड़ों को कुछ धूप दिखा देना
तुम सहन में जाड़े को फैलाये हुये रखना

मैं धूप के सहरा से झुलसा हुआ आऊँगा
शानों पे घटाओं को ठहराये हुये रखना

हो जायें कभी शब में बच्चों से भी दो बातें
परियों की कहानी को दोहराये हुये रखना

धुन्धला न कहीं कर दे कुछ घर की परेशानी
आईना-ए-रुख़ अपना चमकाये हुये रखना

इक उम्र पे भी उस का अन्दाज़ वही 'अन्जुम'
कमरे में क़दम रखना शर्माये हुये रखना

Thursday, June 07, 2007

भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा /बशीर बद्र


भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा
घर छोड़ के मत जाओ कहीं घर न मिलेगा

फिर याद बहुत आयेगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा

आँसू को कभी ओस का क़तरा न समझना
ऐसा तुम्हें चाहत का समुंदर न मिलेगा

इस ख़्वाब के माहौल में बे-ख़्वाब हैं आँखें
बाज़ार में ऐसा कोई ज़ेवर न मिलेगा

ये सोच लो अब आख़िरी साया है मुहब्बत
इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा

सुन ली जो ख़ुदा ने वो दुआ तुम तो नहीं हो / बशीर बद्र


सुन ली जो ख़ुदा ने वो दुआ तुम तो नहीं हो
दरवाज़े पे दस्तक की सदा तुम तो नहीं हो

सिमटी हुई शर्माई हुई रात की रानी
सोई हुई कलियों की हया तुम तो नहीं हो

महसूस किया तुम को तो गीली हुई पल्कें
भीगे हुये मौसम की अदा तुम तो नहीं हो

इन अजनबी राहों में नहीं कोई भी मेरा
किस ने मुझे यूँ अपना कहा तुम तो नहीं हो

Wednesday, June 06, 2007

घर छोड़ के भी ज़िन्दगी हैरानियों में है \ मुमताज़ राशिद


घर छोड़ के भी ज़िन्दगी हैरानियों में है
शहरों का शोर दश्त की वीरानियों में है

[दश्त = रेगिस्तान]

कितना कहा था उस से के दामन समेट ले
अब वो भी मेरे साथ परेशानियों में है

लहरों में ढूँढता हूँ मैं खोये हुये नगीन
चेहरों का अक्स बहते हुये पानियों में है

[अक्स = प्रतिबिम्ब]

डरता हूँ ये भी वक़्त के हाथों से मिट न जाये
हल्की सी जो चमक अभी पेशानियों में है

[पेशानी = ललाट]

आज भी हैं मेरे क़दमों के निशाँ आवारा \ मुमताज़ राशिद


आज भी हैं मेरे क़दमों के निशाँ आवारा
तेरी गलियों में भटकते थे जहाँ आवारा

तुझ से क्या बिछड़े तो ये हो गई अपनी हालत
जैसे हो जाये हवाओं में धुआँ आवारा

मेरे शेरों की थी पहचान उसी के दम से
उस को खो कर हुए बेनाम-ओ-निशाँ आवारा

जिस को भी चाहा उसे टूट के चाहा "राशिद"
कम मिलेंगे तुम्हें हम जैसे यहाँ आवारा

Tuesday, June 05, 2007

दिल से धड़कन ख़ून से अज़्म-ए-सफ़र ले जायेगा / अज़ीम अमरोहवी


दिल से धड़कन ख़ून से अज़्म-ए-सफ़र ले जायेगा
वक़्त इक दिन छीन कर सारे हुनर ले जायेगा

[अज़्म-ए-सफ़र =सफ़र करने कि शक्ति]

हाँ दुआ माँगी थी लेकिन ये तो सोचा भी न था
मौसम-ए-बरसात सब दीवार-ओ-दर ले जायेगा

आज इस तितली को इन फूलों पे उड़ने दीजिये
कल कोई झोंका हवा का इस के पर ले जायेगा

तू किसी अन्धे कुयेँ में जाये तो ये जान ले
साथ साथ अपने ये मेरी भी नज़र ले जायेगा

दूसरों के घर में पत्थर फेंकने वाले ये सोच
तू बचा कर किस तरह शीशे का घर ले जायेगा

शहर की सड़कों पे मेरे साथ मत निकलो अभी
जो भी देखेगा उड़ा कर ये ख़बर ले जायेगा

सर-बुलन्दी जिस का मनसब है वो झुक सकता नहीं
दस्त-ए-क़ातिल उस का ख़ुद नेज़े पे सर ले जायेगा

[सर-बुलन्दी = सर ऊँचा रखना]
[दस्त-ए-क़ातिल = क़ातिल का हाथ; नेज़ा = भाला]

Monday, June 04, 2007

कुछ नहीं है मेरे पास सिवा दर्द के खोने को / गौरव प्रताप


कुछ नहीं है मेरे पास सिवा दर्द के खोने को,
यादें भी ना रहने दोगे क्या मुझे संजोने को

ये माना कि ग़मों की बाग़वानी है तेरा शौक लेकिन,
सिर्फ़ मेरा ही दिल मिला था ज़ख्म बोने को

दावा चांद का कि वो गवाह है मेरे रतजगों का,
झूठा! जाता है मुझे छोड़ अमावस की रात सोने को

तन्हा बरसा हूं मै भी तुझे याद करके बाद्लों की तरह,
पर पास था सिर्फ़ मेर तकिया भिगोने को

अब तेरे शहर में भी लोग फ़ूलों की बात करते हैं,
कलेजे कम पड़ गये हैं क्या काँटे चुभोने को

हम भी भूल जायेंगे वो रंगीन-वादे, वो महक़-ए-सबा
कुछ वक़्त लगता है दाग़-ए-खूँ-ए-पैरहन धोने को

Sunday, June 03, 2007

एक जू -ए-दर्द दिल से जिगर तक रवां है आज \ अली सरदार ज़ाफ़री


एक जू -ए-दर्द दिल से जिगर तक रवां है आज
पिघला हुआ रगों में इक आतिश -फिशां है आज

[जू -ए -दर्द = दर्द की नदी ; रवां = बहता हुआ / गतिमान ]
[राग = नस ; आतिश -फिशां = ज्वालामुखी / वोल्कानो]

लब सी दिए हैं ता ना शिक़ायत करे कोई
लेकिन हर एक ज़ख्म के मुँह में ज़बान है आज

[ ता = ताकि / अतः]

तारीकियों ने घेर लिया है हयात को
लेकिन किसी का रू -ए -हसीं दरमियान है आज

[तारीकी = अँधेरा ; हयात = जिन्दगी ; रू -ए -हसीं = खूबसूरत चेहरा ; दरमियान = बीच ]

जीने का वक़्त है यही मरने का वक़्त है
दिल अपनी ज़िंदगी से बहुत शादामान है आज

[शादामान = खुश ]

हो जाता हूँ शहीद हर अहल -ए -वफ़ा के साथ
हर दास्ताँ -ए -शौक़ मेरी दास्ताँ है आज

[अहल -ए -वफ़ा = वफ़ा करने वाला ]
[दास्ताँ -ए -शौक़ = प्यार की कहानी ]

आये हैं इस निशात से हम क़त्ल -गाह में
जख्मों से दिल है चूर नज़र गुल -फिशां है आज

[निशात = ख़ुशी ; क़त्ल -गाह = क़त्ल करने कि जगह ]
[चूर = टूटा हुआ ; गुल -फिशां = फूल गिराने वाली ]

ज़िन्दानियों ने तोड़ दिया ज़ुल्म का गुरूर
वो दब -दबा वो रोआब -ए -हुकूमत कहाँ है आज

[ज़िन्दानी = कैदी ; गुरूर = घमंड ]
[दब -दबा = दिखावा ; रोआब = आतंक ; हुकूमत = शासन ]

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