Wednesday, July 18, 2007

उस की जाम-ए-जम आँखें शीश-ए-बदन मेरा / अब्दुल्लाह कमाल



उस की जाम-ए-जम आँखें शीश-ए-बदन मेरा
उस की बन्द मुट्ठी में सारा बाँकपन मेरा

मैं ने अपने चेहरे पे सब हुनर सजाये थे
फ़ाश कर गया मुझ को सादा पैरहन मेरा

[फ़ाश = ऊजागर करना; पैरहन = वस्त्र]

दिल भी खो गया शायद शहर के सुराबों में
अब मेरी तरह से है दर्द बेवतन मेरा

[सुराब = मृगतृष्णा]

एक दश्त-ए-ख़ामोशी अब मेरा मुक़द्दर है
याद बेसदा तेरी ज़ख़्म बे-चमन मेरा

[दश्त-ए-ख़ामोशी = रेगिस्तान की चुप्पी]

रोज़ अपनी आँखों के ख़्वाब ख़ून करता हूँ
हाय किन ग़नीमों से आ पड़ा है रन मेरा

[ग़नीम = दुश्मन; रन = लड़ाई]

मग़रबी हवा ने फिर ये सन्देशा भेजा है
मुन्तज़िर तुम्हारा है ख़ुश्बुओं का बन मेरा

[मग़्रबी = पश्चिमि; मुन्तज़िर = इन्तज़ार मे]

1 Comments:

At 2:28 am , Blogger परमजीत सिहँ बाली said...

गौरव जी,बहुत बढिया गजल प्रेषित की है।बधाई।

 

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