आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनायेँ हम \ अख्तर उल ईमान
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनायेँ हम
आती नहीं कहीं से दिल-ए-ज़िन्दा की सदा
सूने पड़े हैं कूचा-ओ-बाज़ार इश्क़ के
है शम-ए-अन्जुमन का नया हुस्न-ए-जाँ गुदाज़
शायद नहीं रहे वो पतन्गों के वलवले
ताज़ा न रख सकेगी रिवायात-ए-दश्त-ओ-दर
वो फ़ित्नासर गये जिन्हें काँटें अज़ीज़ थे
अब कुछ नहीं तो नीन्द से आँखें जलायेँ हम
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनायेँ हम
सोचा न था कि आयेगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें
क्या जाने अब न उल्फ़त-ए-देरीना याद आये
इस हुस्न-ए-इख़्तियार पे आँखें झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़
सन्भले हुए तो हैं. पर ज़रा डगमगा तो लें
[जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत=प्यार कि मृत्यु का आनंद]
[गुदाज़=पिघला हुआ; वलवले=जोश; फ़ित्नासर=पागल]
[उल्फ़त-ए-देरीना=पुराना प्यार]
4 Comments:
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बहुत खूब अख्तर जी....! प्रशंसा के लिये शब्द मुझे तो नही मिल रहे! बस ज़बान से वाह! वाह! निकाल रही है!
waah!! aisa lagta hai ehsaas hi alfaaz hain..Husn O ishq aur mohabbat par khoob kaha hai aapne.. shukriya!!
बिना कुछ कहे ही गलती सुधरवाने का तरीका अच्छा लगा! दरअसल मुझे शायर और पोस्ट करने पाले के नाम में confusion हो गया था...शुक्रिया!
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