Thursday, May 31, 2007

हवस-नसीब नज़र को कहीं क़रार नहीं / साहिर लुधियानवी


हवस-नसीब नज़र को कहीं क़रार नहीं
मैं मुंतज़िर हूँ मगर तेरा इन्तज़ार नहीं


हमीं से रन्ग-ए-गुलिस्ताँ हमीं से रन्ग-ए-बहार
हमीं को नज़्म-ए-गुलिस्ताँ पे इख़्तियार नहीं


अभी न छेड़ मोहब्बत के गीत अए मुतरिब
अभी हयात का माहौल ख़ुशगवार नहीं


तुम्हारे अह्द-ए-वफ़ा को अहद मैं क्या समझूँ
मुझे ख़ुद अपनी मोहब्बत का ऐतबार नहीं


न जाने कितने गिले इस में मुज़्तरिब है नदीम
वो एक दिल जो किसी का गिलागुसार नहीं


गुरेज़ का नहीं क़ायल हयात से लेकिन
जो सोज़ कहूँ तो मुझे मौत नागवार नहीं

ये किस मक़ाम पे पहुँचा दिया ज़माने ने
कि अब हयात पे तेरा भी इख़्तियार नहीं

Wednesday, May 30, 2007

क्या ख़बर थी इस तरह से वो जुदा हो जायेगा \ रुस्तम सहगल वफ़ा


क्या ख़बर थी इस तरह से वो जुदा हो जायेगा
ख़्वाब में भी उस का मिलना ख़्वाब सा हो जायेगा


ज़िन्दगी थी क़ैद हमें क्या निकालोगे उस से
मौत जब आ जायेगी तो ख़ुद रिहा हो जायेगा


दोस्त बनकर उस को चाहा, ये कभी सोचा न था
दोस्ती ही दोस्ती में वो ख़ुदा हो जायेगा


उस का जल्वा होगा क्या जिसका के पर्दा नूर है
जो भी उस को देख लेगा वो फ़िदा हो जायेगा

Tuesday, May 29, 2007

इतना तू करम हम पे ऐ सय्याद करे है \ फ़रोश




इतना तू करम हम पे ऐ सय्याद करे है
पर नोच के अब क़ैद से आज़ाद करे है

[करम=एहसान; सय्याद=शिकारी; पर=पंख]

ऐ बाद-ए-सबा उन से ये कह दीजीयो जा कर
परदेस में एक शख़्स तुझे याद करे है

[बाद-ए-सबा=सुबह की हवा; शख़्स=व्यक्ति]

आवे है तेरी याद तो हँस देवे है अक्सर
दीवाना तेरा यूँ भी तुझे याद करे है

फ़रज़ाना उजाड़े है भरे शहरों को लेकिन
दीवाना तो सहरा को भी आबाद करे है

[फ़रज़ाना=अकलमन्द; सहरा=वीराना / रेगिस्तान]

लिख लिख के मिटा देवे है तू नाम ये किस का
सच कहियो "फ़रोश" आज किसे याद करे है

Monday, May 28, 2007

दस्तूर इबादत का दुनिया से निराला हो / दलीप ताहिर


दस्तूर इबादत का दुनिया से निराला हो
इक हाथ में माला हो, इक हाथ में प्याला हो

पूजेंगे सलीक़े से अन्दाज़ मगर अपना
हो याद-ए-ख़ुदा दिल में साक़ी ने सम्भाला हो

मस्ती भी तक़द्दुस भी एक साथ चले दोनों
इक सिम्त हो मैख़ाना, इक सिम्त शिवाला हो

मस्जिद की तरफ़ से तू जाना न कभी साक़ी
ज़ाहिद भी कभी तेरा न चाहनेवाला हो

वो डूब के मर जायें मदिरा की सुराही में
माशूक़ ने गर दिल की महफ़िल से निकाला हो

Sunday, May 27, 2007

सौ ख़ुलूस बातों में सब करम ख़यालों में / बशीर बद्र


सौ ख़ुलूस बातों में सब करम ख़यालों में
बस ज़रा वफ़ा कम है तेरे शहर वालों में

[ख़ुलूस=मिठास]

पहली बार नज़रों ने चाँद बोलते देखा
हम जवाब क्या देते खो गये सवालों में

रात तेरी यादों ने दिल को इस तरह छेड़ा
जैसे को-ई चुटकी ले नर्म नर्म गालों में

मेरी आँख के तारे अब न देख पाओगे
रात के मुसाफ़िर थे खो गये उजालों में

Thursday, May 24, 2007

क़ुरान हाथों में ले के / गुलज़ार



क़ुरान हाथों में ले के नाबीना एक नमाज़ी
लबों पे रखता था
दोनों आँखों से चूमता था
झुकाके पेशानी यूँ अक़ीदत से छू रहा था
जो आयतें पढ़ नहीं सका
उन के लम्स महसूस कर रहा हो

[ अक़ीदत= सम्मान,आदर; लम्स = खुश्बू]

मैं हैराँ-हैराँ गुज़र गया था
मैं हैराँ हैराँ ठहर गया हूँ


तुम्हारे हाथों को चूम कर
छू के अपनी आँखों से आज मैं ने
जो आयतें पढ़ नहीं सका
उन के लम्स महसूस कर लिये हैं

आदतन तुम ने कर दिये वादे / गुलज़ार



आदतन तुम ने कर दिये वादे
आदतन हम ने ऐतबार किया

तेरी राहों में बारहा रुक कर
हम ने अपना ही इन्तज़ार किया

अब ना माँगेंगे ज़िन्दगी या रब
ये गुनाह हम ने एक बार किया

Wednesday, May 23, 2007

दीदा-ए-तर में तिश्नगी है अभी / मिदहतुल अख्तर


आग पूरी कहाँ बुझी है अभी
दीदा-ए-तर में तिश्नगी है अभी

[दीदा-ए-तर = गीलीं आंखें]
[तिश्नगी = प्यास]

दोस्तों से चुका रहा हूँ हिसाब
दुश्मनों से कहाँ ठनी है अभी

दोस्त कह कर मुझे न दे गाली
दिल पे इक ज़ख़्म-ए-दोस्ती है अभी

काट दे ये भी ख़ुदपरस्ती में
और थोड़ी सी ज़िन्दगी है अभी

[ख़ुदपरस्ती = स्वार्थ]

जाने क्यों कुन्द हो गया नश्तर
ज़ख़्म की धार तो वही है अभी

[कुन्द = बिन धार का; नश्तर = चाकू]

Tuesday, May 22, 2007

पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है / मीना कुमारी ' नाज़'


पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है
रात खैरात की सदके की सहर होती है

सांस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब
दिल ही दुखता है ना अब आस्तीन तर होती है

जैसे जागी हुई आंखों में चुभें कांच के ख्वाब
रात इस तरह दीवानों की बसर होती है

गम ही दुश्मन है मेरा गम ही को दिल ढूँढता है
एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है

एक मरकज़ की तलाश एक भटकती खुश्बू
कभी मंज़िल कभी तम्हीद -ए -सफ़र होती है

[ मरकज़ = लक्ष्य ; तम्हीद -ए -सफ़र = सफ़र की शुरुआत ]

Monday, May 21, 2007

बादाबां खुलने से पहले का इशारा देखना/ परवीन शाकिर


बादाबां खुलने से पहले का इशारा देखना,
मैं समंदर देखती हूँ तुम किनारा देखना

यूं बिछड़ना भी बहुत आसां ना था उस से मगर,
जाते जाते उस का वो मुड़ के दुबारा देखना

किस शबाहत को लिए आया है दरवाजे पे चांद
ए शब्-ए -हिज्राँ ज़रा अपना सितारा देखना

[ शबाहत = आकार ; शब् -ए-हिज्राँ = बिछड़ने की रात ]

आईने की आंख ही कुछ कम ना थी मेरे लिए
जाने अब क्या क्या दिखायेगा तुम्हारा देखना

Sunday, May 20, 2007

ये हर रोज़ गली मे खडे होकर मुझे पुकारता कौन है / गौरव प्रताप


ये हर रोज़ गली मे खडे होकर मुझे पुकारता कौन है,
इस अजनबी अनजान शहर मे मेरा नाम जानता कौन है,

रात भर सीने से अंगारे बाँध तड़पता तो मैं हूँ,
फिर ये तेरे सामने जिगर पे जख्म लिए आता कौन है

सो जाएँ जो चिराग शहर के,मेरे दर पे दस्तक दे देना,
यकीन आ जाएगा यहाँ तमाम रात जागता कौन है

दरवेश इस उम्मीद में था, के कोई आँखें पढ़ लेगा,
भूल बैठा के अब ये ज़बान समझाता कौन है

कलम से रिश्ता तोड़े तो मुझे एक ज़माना गुजरा,
फिर ये तेरी शान मे ग़ज़ल लिखने वाला कौन है

Thursday, May 17, 2007

शिकस्त / साहिर लुधियानवी


अपने सीने से लगाये हुये उम्मीद की लाश
मुद्दतों ज़ीस्त को नाशाद किया है मैंने
तूने तो एक ही सदमे से किया था दो चार
दिल को हर तरह से बर्बाद किया है मैनें
जब भी राहों में नज़र आये हरीरी मलबूस
सर्द आहों से तुझे याद किया है मैंनें


[लाश = शव ; मुद्दत = समय का लम्बा दौर ]
[ जीस्त = ज़िंदगी ; नाशाद = दुःखी ]
[हरीरी = रेशमी ; मलबूस = कपड़ा ; सर्द = ठंडा ]


और अब जब कि मेरी रूह की पहनाई में
एक सुनसान सी मग़्मूम घटा छाई है
तू दमकते हुए आरिज़ की शुआयेँ लेकर
गुलशुदा शम्मएँ जलाने को चली आई है


[रूह = आत्मा ; सुनसान = अकेला/अकेली ; मग्मूम = दुःखी ]
[घटा = बादल ; आरिज़ = गाल ; शुआयेँ= ज्वाला ]
[गुलशुदा = बुझी हुई ]



मेरी महबूब ये हन्गामा-ए-तजदीद-ए-वफ़ा
मेरी अफ़सुर्दा जवानी के लिये रास नहीं
मैं ने जो फूल चुने थे तेरे क़दमों के लिये
उन का धुंधला-सा तसव्वुर भी मेरे पास नहीं


[महबूब = प्रेमी / प्रेमिका ; तजदीद -ए -वफ़ा = प्यार का नवीनीकरण ]
[अफसुर्दा = कुंठित ; रास = उपयुक्त ]
[क़दमों=पैर ; धुंधला-सा= अस्पष्ट ]
[तसव्वुर = सपना / कल्पना ]


एक यख़बस्ता उदासी है दिल-ओ-जाँ पे मुहीत
अब मेरी रूह में बाक़ी है न उम्मीद न जोश
रह गया दब के गिराँबार सलासिल के तले
मेरी दरमान्दा जवानी की उमन्गों का ख़रोश

[यख़बस्ता = जमा हुआ ; उदासी = दुःख ]
[मुहीत = ढंकने वाला कपड़ा ; बाकी = बचा हुआ ]
[गिराँबार = बहुत ज़्यादा बोझ ]
[सलासिल = जंजीर ; तले = नीचे ]
[दरमान्दा = असहाय ]
[उमंग = जोश ; खरोश = ऊंची आवाज़]


Wednesday, May 16, 2007

चांद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का \ फिराक गोरखपुरी


चांद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का
रंग बदले किसी सूरत शब् -ए -तनहाई का

[जानिब = की ओर ; ज़ेबाई = खूबसूरती ; शब = रात ]

दौलत -ए -लब से फिर आई खुस्राव -ए -शिरीन - दहन
आज रिज़ा हो कोई हर्फ़ शाहान्शाई का

[लब = होठ ; खुसरवी = शाही ; शिरीन = मीठा / मीठी ; दहन = मुँह ]

दीदा -ओ -दिल को संभालो कि सर -ए -शाम "फिराक "
साज़ -ओ -सामान बहम पहुँचा है रुसवाई का

[दीदा -ओ -दिल = आंख और दिल ; बहम = साथ-साथ ]

Tuesday, May 15, 2007

कौन कहता है / अहमद नदीम काज़मी


कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूं, समन्दर में उतर जाऊँगा

तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा, सहरा में बिखर जाऊँगा

तेरे पहलू से जो उठूँगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा, जिधर जाऊँगा

अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा

[साया-ए-अब्र = बादल की छाया; मानिंद = तरह ]

तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना
वरना सोचा था कि जब चाहूँगा, मर जाऊँगा

चारासाज़ों से अलग है मेरा मेयार कि मैं
ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और संवर जाऊँगा

अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुज़रीं
अब उसे ढ़ूंढने मैं ता-बा-सहर जाऊँगा

ज़िन्दगी शमा की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’
बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा

तड़पते हैं ना रोते हैं ना हम फरियाद करते हैं / हैदर अली आतिश

तड़पते हैं ना रोते हैं ना हम फरियाद करते हैं
सनम की याद में हरदम खुदा को याद करते हैं

उन्हीं के इश्क में हम नाला -ओ -फरियाद करते हैं
इलाही देखिए किस दिन हमें वो याद करते हैं

[नाला = ज़ोर से रोना ]

शब् -ए -फुरकत में क्या-क्या सांप लहराते हैं सीने पर
तुम्हारी काकुल -ए -पेचां को जब हम याद करते हैं

[शब् -ए -फुरकत = जुदाई कि रात ; काकुल -ए -पेचां = घुंघराले बाल ]

इक इंतज़ार सा था अब नज़र में वो भी नहीं / महशर बदयूनी

इक इंतज़ार सा था अब नज़र में वो भी नहीं
सफ़र में मरने की फुर्सत थी घर में वो भी नहीं

ज़रा मलाल की ज़ुल्मत को टालने के लिए
कई ख़याल थे अब तो असर में वो भी नहीं

[मलाल = दुःख ; ज़ुल्मत = अँधेरा; असर = प्रभाव]

जो संग -ओ -खार थे मेरी ही गर्दिशों तक थे
मैं आह -गुज़र में नही राह -गुज़र में वो भी नहीं

[संग = पत्थर ; खार = कांटे ]

थे चश्म -ए -बाम नगर में अजब तुलू के रंग
वो इक निशात -ए -सहर था सहर में वो भी नहीं

[तुलू = सुबह ; निशात -ए -सुबह = सुबह की ख़ुशी ]

रहे ना कुछ भी मगर ये कैफ़ क्या कम है
जिस आगाही की कमी थी हुनर में वो भी नहीं

[कैफ़ = प्रभाव / नशा ; आगाही = चेतावनी ; हुनर = गुण ]

Monday, May 14, 2007

कल ही गांव से आया हूँ / गौरव प्रताप

कल ही गांव से आया हूँ ,
आँखें नम हैं,
विषाद से नहीं ,
ख़ुशी से ,
हालातों का बदलना ,
कभी भी
इतना सुखद नहीं हुआ,
पर ,
ये सच है ,
कि ,
कल्पनाओं से भी ,
विस्मयकारी होता है ,
सच
और कभी-कभी ,
सुखद भी
मेरे गांव का ,
पछियारी टोला ,
या ,
हाकिमों कि ज़बान में,
नान्ह टोला,
महसूस कर रह है ,
परिवर्तन का ताज़ा झोंका,
अभी कल तक ,
इस टोले का हर किशोर ,
जो ,
सोलहवां वसंत छूता,
उसे मिलता था ,
दिल्ली ,हरियाणा ,पंजाब या गुजरात का टिकट ,
मानों जन्मदिन का उपहार हो
उसे निर्यात कर दिया जाता ,
इन मायावी जमीनों ,
कि कोढ़ बस्तियों में
यकीन ना हो तो पूछ लीजिये ,
पूरे गांव से
पलटू दुसाध ,
जीतन मांझी ,
भदई पासवान
या दरोगा राम ने
भी भेजा है ,
अपने जिगर के ख़ून को ,
रोटी कि उम्मीद मे
एकबार बुद्ध ने पूछा था लोगों से,
"पानी कि कीमत ज़्यादा है या इन्सान के ख़ून की"
उत्तर आज हम शायद भूल गए हैं.
बूढे पीपल ने देखा है ,
आबाद गांव को बदलते ,
बियाबान मे ,
कुश्ती के अखाड़ों को ,
पथराते हुए
कबड्डी की जमीन पर
घास उगते हुए
कानों मे फूत्पाती वॉकमैन ,
आंखों पर चश्मा ,
चिंदी बाजार की जीन्स,
पहन कर हीरो बने छोकरे ,
गांव से ,
फसकर ले जाते थे ,
नए लड़के,
बहेलिओं की तरह
पर यहीं खतम नही होती ,
मेरे गांव कि बात ,
फिरंगी दास का बेटा विजय ,
मेरे गांव का सबसे तेज़ ,
कबड्डी का खिलाडी ,
वापस आया है ,
लुधियाना से ,
कमाकर ,
आँखें धंस गयी है ,
चेहरा सूख गया है ,
छाती कि हड्डियाँ गिनी जा सकती हैं ,
जैसे मौत ने नकार दिया हो
अब कस्मे खाता है ,
कि वापस नही जाऊंगा ,
गांव छोड़कर ,
कि ,
साल भर मे ,
तरस गया था ,
वो ,
फेफडे भर ताजी हवा कि खातिर ,
झोंपडी के पीछे लगे बैंगन कि सब्जी ,
और उसना भात कि खातिर ,
वो कसमें खाता है ,
कि नही जाएगा
वापस
बूढे माँ-बाप को छोड़कर ,
गांव मे ही बंटाई पर खेत ले लेगा ,
या लोन पे ,
गाये लेकर ,
डेयरी मे दूध देगा
फिरंगी दास कि बुढिया ,
आंखो मे मोतियाबिंद लिए ,
उस शाम ,
न्योता दे रही थी ,
पूरे गांव को ,
मूर्ही और गूढ़ के ज्योनार की खातिर ,
की अब वो कुँए पर ,
हर औरत से ,
टोले की संकरी पगडण्डी पर आते ,
हर किसी से कहती है ,
उसका बेटा अब उन दोनो को
छोड़कर कहीँ नहीं जाएगा
वो जल्दी ही उसकी शादी कर देगी ,
और पोते खिलायेगी ,
कुँए पर मिलने वाली ,
हर बुढिया ,
अब जलती है ,
फिरंगी की बहु की किस्मत से ,
क्यूंकि सब चाहती हैं ,
की उसका बेटा वापस आ जाये ,
और दबी जबान मे ही सही,
वो समझायेंगी,
अपने बेटों को.
फिर से ,
आल्हा ,होली ,चिता और बिदेसिया
गाये जायेंगे ,
की अब ,
कोई बुजुर्ग जिंदा नही रहेगा ,
लावारिस की तरह ,
अब किसी सिहोर यादव की लाश ,
नही सदेगी ,
तीन दिनों तक ,
इकलौते बेटे के इंतज़ार मे
हवाएँ बदल रही हैं ,
पर हवाएँ इतनी जल्द बदलेंगी ,
इसकी उम्मीद ना थी ,
पर ये सच है ,
हवाएँ बदल रही हैं
हवाएँ बदल रही हैं
मेरे गांव की.

आंख से दूर ना हो दिल से उतर जाएगा / अहमद फ़राज़

आंख से दूर ना हो दिल से उतर जाएगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा

इतना मानूस ना हो खिल्वत -ए -गम से अपनी
तू कभी खुद को भी देखेगा तो डर जाएगा

[मानूस =नजदीक ; खिल्वत -ए -गम =अकेलेपन का दुःख]

तुम सर -ए -राह -ए -वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम -ए -राफाकत से उतर जाएगा

[सर -ए- राह- ए -वफ़ा =प्यार की राह ; बाम -ए -राफाकत =प्यार के लिए ज़िम्मेदारी ]

ज़िंदगी तेरी अता है तो ये जानेवाला
तेरी बख्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जाएगा

[अता =उपहार ; बख्शीश = टिप ; दहलीज़ = चौखट /doorstep]

डूबते -डूबते कश्ती तो ओछाला दे दूँ
मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जाएगा

[ओछाला = ऊपर कि तरफ धक्का ]

ज़ब्त लाजिम है मगर दुःख है क़यामत का 'फ़राज़'
ज़ालिम अब के भी ना रोयेगा तो मर जाएगा

इस तरह सताया है परेशान किया है \ अफज़ल फिरदौस

इस तरह सताया है परेशान किया है
गोया की मुहब्बत नहीं एहसान किया है

सोचा था कि तुम दूसरों जैसे नहीं होगे
तुम ने भी वही काम मेरी जान किया है

मुश्किल था बहुत मेरे लिए तर्क -ए ताल्लुक
ये काम भी तुम ने मेरा आसान किया है

[तर्क = छोड़ना ; ताल्लुक = रिश्ता ]

हर रोज़ सजाते हैं तेरी हिज्र में गुंचे
आंखों को तेरी याद में गुलदान किया है

[हिज्र = जुदाई / अलगाव ; गुंचे = फूल ]
[गुलदान = गुलदस्ता ]

Sunday, May 13, 2007

अली सरदार जाफ़री

आवारा हैं गलियों में मैं और मेरी तनहाई
जाएँ तो कहाँ जाएँ हर मोड़ पे रुसवाई

ये फूल से चहरे हैं हँसते हुए गुलदस्ते
कोई भी नहीं अपना बेगाने हैं सब रस्ते
राहें हैं तमाशाई रही भी तमाशाई

मैं और मेरी तन्हाई

अरमान सुलगते हैं सीने में चिता जैसे
कातिल नज़र आती है दुनिया की हवा जैसे
रोटी है मेरे दिल पर बजती हुई शहनाई

मैं और मेरी तन्हाई

आकाश के माथे पर तारों का चरागाँ है
पहलू में मगर मेरे जख्मों का गुलिस्तां
है आंखों से लहू टपका दामन में बहार आई

मैं और मेरी तन्हाई

हर रंग में ये दुनिया सौ रंग दिखाती है
रोकर कभी हंसती है हंस कर कभी गाती है
ये प्यार की बाहें हैं या मौत की अंगडाई

मैं और मेरी तन्हाई

Friday, May 11, 2007

ताजमहल / साहिर लुधियानवी


ताज तेरे लिए इक मज़हरे-उल्‍फ़त ही सही
तुझको इस वादिये रंगीं से अकीदत ही सही
मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझसे

[मज़हर-ऐ-उल्‍फत—प्रेम का प्रतिरूप;वादिए-रंगीं—रंगीन घाटी;]

बज़्मे-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्‍या मानी
सब्‍त जिस राह पे हों सतवते शाही के निशां
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्‍या मानी
मेरे मेहबूब पसे-पर्दा-ए-तशहीरे-वफ़ा तूने
सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक-मकानों को तो देखा होता

[बज्मे शाही—शाही महफिल;सब्‍त—अंकित; सतवते-शाही— शाहाना शानो शौक़त;पसे-पर्दा-ए-तशहीरे-वफ़ा—प्रेम के प्रदर्शन/विज्ञापन के पीछे;]

अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्‍बत की है
कौन कहता है सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिए तशहीर का सामान नहीं
क्‍योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे

[ तारीक—अंधेरे; सादिक़—सच्‍चे;तशहीर का सामान—विज्ञापन की सामग्री;]

ये इमारतो-मकाबिर, ये फ़सीलें, ये हिसार
मुतलक-उल-हुक्‍म शहंशाहों की अज़्मत के सुतूं
दामने-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अज़दाद का खूं
मेरी मेहबूब, उन्‍हें भी तो मुहब्‍‍बत होगी
जिनको सन्‍नाई ने बख्‍शी शक्‍ले-जमील
उनके प्‍यारों के मक़ाबिर रहे बेनामो-नुमूद
आज तक उन पे जलाई ना किसी ने कंदील


[मक़ाबिर—मकबरे;हिसार—किले;मुतलक-उल-हुक्‍म—पूर्ण सत्‍ताधारी;अज़्मत—महानता;सुतूं—सुतून;दामने-देहर—संसार के दामन पर;अज़दाद—पुरखे;ख़ूं—खून;सन्‍नाई—कारीगरी;शक्‍ले-जमील—सुंदर रूप;बेनामो-नुमूद—गुमनाम]


ये चमनज़ार, ये जमना का किनारा, ये महल
ये मुनक्‍क़श दरोदीवार, ये मेहराब, ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्‍बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझे ।।

[चमनज़ार—बाग़;मुनक़्क़श—नक्‍काशी]

Thursday, May 10, 2007

कोई ये कैसे बता ये कि वो तन्हा क्यों हैं / कैफ़ी आज़मी

कोई ये कैसे बता ये के वो तन्हा क्यों हैं
वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं
यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यों हैं
यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों हैं

एक ज़रा हाथ बढ़ा, दे तो पकड़ लें दामन
उसके सीने में समा जाये हमारी धड़कन
इतनी क़ुर्बत हैं तो फिर फ़ासला इतना क्यों हैं

दिल-ए-बरबाद से निकला नहीं अब तक कोई
एक लुटे घर पे दिया करता हैं दस्तक कोई
आस जो टूट गयी फिर से बंधाता क्यों हैं

तुम मसर्रत का कहो या इसे ग़म का रिश्ता
कहते हैं प्यार का रिश्ता हैं जनम का रिश्ता
हैं जनम का जो ये रिश्ता तो बदलता क्यों हैं


कुर्बत=समीपता ;
मसर्रत=खुशी

झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं / कैफ़ी आज़मी

झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं

तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता
मेरी तरह तेरा दिल बेक़रार है कि नहीं

वो पल के जिस में मुहब्बत जवान होती है
उस एक पल का तुझे इंतज़ार है कि नहीं

तेरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को
तुझे भी अपने पे ये ऐतबार है कि नहीं

बस इक झिझक है यही / कैफ़ी आज़मी

बस इक झिझक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में
कि तेरा ज़िक्र भी आयेगा इस फ़साने में

बरस पड़ी थी जो रुख़ से नक़ाब उठाने में
वो चाँदनी है अभी तक मेरे ग़रीब-ख़ाने में

इसी में इश्क़ की क़िस्मत बदल भी सकती थी
जो वक़्त बीत गया मुझ को आज़माने में

ये कह के टूट पड़ा शाख़-ए-गुल से आख़िरी फूल
और देर है कितनी बहार आने में

अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर / कैफ़ी आज़मी

अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो
मुझ से बिखरे हुये गेसू नहीं देखे जाते
सुर्ख़ आँखों की क़सम काँपती पलकों की क़सम
थर-थराते हुये आँसू नहीं देखे जाते

अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो
छूट जाने दो जो दामन-ए-वफ़ा छूट गया
क्यूँ ये लग़ज़ीदा ख़रामी ये पशेमाँ नज़री
तुम ने तोड़ा नहीं रिश्ता-ए-दिल टूट गया

अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो
मेरी आहों से ये रुख़सार न कुम्हला जायें
ढूँडती होगी तुम्हें रस में नहाई हुई रात
जाओ कलियाँ न कहीं सेज की मुरझा जायें

अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो
मैं इस उजड़े हुये पहलू में बिठा लूँ न कहीं
लब-ए-शीरीं का नमक आरिज़-ए-नमकीं की
मिठास अपने तरसे हुये होंठों में चुरा लूँ न कहीं

आग़ोश-ए-तसव्वुर=सपनों का आलिंगन ;
लग़ज़ीदा ख़रामी=सोच-सोच के चलना ;
पशेमाँ नज़री=पछतावे से भरी निगाह ;
रुख़सार=गाल ;
लब-ए-शीरीं=मधुर होंठ ;
आरिज़-ए-नमकीं=नमकीन गाल

अंदेशे / कैफ़ी आज़मी

रूह बेचैन है इक दिल की अज़ीयत क्या है
दिल ही शोला है तो ये सोज़-ए-मोहब्बत क्या है
वो मुझे भूल गई इसकी शिकायत क्या है
रंज तो ये है के रो-रो के भुलाया होगा

वो कहाँ और कहाँ काहिफ़-ए-ग़म सोज़िश-ए-जाँ
उस की रंगीन नज़र और नुक़ूश-ए-हिरमा
उस का एहसास-ए-लतीफ़ और शिकस्त-ए-अरमा
तानाज़न एक ज़माना नज़र आया होगा

झुक गई होगी जवाँ-साल उमंगों की जबीं
मिट गई होगी ललक डूब गया होगा यक़ीं
छा गया होगा धुआँ घूम गई होगी ज़मीं
अपने पहले ही घरोंदे को जो ढाया होगा

दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाये होँगे
अश्क आँखों ने पिये और न बहाये होँगे
बन्द कमरे में जो ख़त मेरे जलाये होँगे
इक-इक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा

उस ने घबरा के नज़र लाख बचाई होगी
मिट के इक नक़्श ने सौ शक़्ल दिखाई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तरफ़ मुझ को तड़पता हुआ पाया होगा

बेमहल छेड़ पे जज़्बात उबल आये होँगे
ग़म पशेमा तबस्सुम में ढल आये होँगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आये होँगे
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा

ज़ुल्फ़ ज़िद कर के किसी ने जो बनाई होगी
रूठे जलवों पे ख़िज़ाँ और भी छाई होगी
बर्क़ आँखों ने कई दिन न गिराई होगी
रंग चेहरे पे कई रोज़ न आया होगा

होके मजबूर मुझे उस ने भुलाया होगा
ज़हर चुप कर के दवा जान के ख़ाया होगा

आवारा सजदे / कैफ़ी आज़मी

इक यही सोज़-ए-निहाँ कुल मेरा सरमाया है
दोस्तों मैं किसे ये सोज़-ए-निहाँ नज़र करूं
कोइ क़ातिल सर-ए-मक़्तल नज़र आता ही नहीं
किस को दिल नज़र करूँ और किसे जाँ नज़र करूँ?

तुम भी महबूब मेरे तुम भी हो दिलदार मेरे
आशना मुझ से मगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं
ख़त्म है तुम पे मसीहानफ़सी चारागरी
महरम -ए-दर्द-ए-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं

अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं
दस्त-ओ-बाज़ू मेरे नाकारा हुए जाते हैं
जिन से हर दौर में चमकी है तुम्हारी दहलीज़
आज सजदे वही आवारा हुए जाते हैँ

दूर मंज़िल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी
लेके फिरती रही रास्ते ही में वहशत मुझ को
एक ज़ख़्म ऐसा न खाया के बहार आ जाती
दार तक लेके गया शौक़-ए-शहादत मुझ को

राह में टूट गये पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं
एक के बाद ख़ुदा एक चला आता था
कह दिया अक़्ल ने तंग आके 'ख़ुदा कोई नहीं'

फिर तो / अशोक चक्रधर

आख़िर कब तक इश्क
इकतरफ़ा करते रहोगे,
उसने तुम्हारे दिल को
चोट पहुँचाई
तो क्या करोगे?

-ऐसा हुआ तो
लात मारूँगा
उसके दिल को।

-फिर तो पैर में भी
चोट आएगी तुमको।

नया आदमी / अशोक चक्रधर

डॉक्टर बोला-
दूसरों की तरह
क्यों नहीं जीते हो,
इतनी क्यों पीते हो?

वे बोले-
मैं तोदूसरों से भी
अच्छी तरह जीता हूँ,
सिर्फ़ एक पैग पीता हूँ।
एक पैग लेते ही
मैं नया आदमी
हो जाता हूँ,
फिर बाकी सारी बोतल
उस नए आदमी को ही
पिलाता हूँ।

तो क्या यहीं? / अशोक चक्रधर

तलब होती है बावली,
क्योंकि रहती है उतावली।
बौड़म जी ने
सिगरेट ख़रीदी
एक जनरल स्टोर से,
और फ़ौरन लगा ली
मुँह के छोर से।
ख़ुशी में गुनगुनाने लगे,
और वहीं सुलगाने लगे।
दुकानदार ने टोका,
सिगरेट जलाने से रोका-
श्रीमान जी!मेहरबानी कीजिए,
पीनी है तो बाहर पीजिए।
बौड़म जी बोले-कमाल है,
ये तो बड़ा गोलमाल है।
पीने नहीं देते
तो बेचते क्यों हैं?
दुकानदार बोला-
इसका जवाब यों है
कि बेचते तो हमलोटा भी हैं,
और बेचतेजमालगोटा भी हैं,
अगर इन्हें ख़रीदकर
आप हमें निहाल करेंगे,
तो क्या यहीं
उनका इस्तेमाल करेंगे?

कौन है ये जैनी? / अशोक चक्रधर

बीवी की नज़र थी
बड़ी पैनी-
क्यों जी,
कौन है ये जैनी?

सहज उत्तर था मियाँ का-
जैनी,
जैनी नाम है
एक कुतिया का।
तुम चाहती थीं न
एक डौगी हो घर में,
इसलिए दोस्तों से
पूछता रहता था अक्सर मैं।
पिछले दिनोंएक दोस्त ने
जैनी के बारे में बताया था।


पत्नी बोली-अच्छा!
तो उस जैनी नाम की कुतिया का
आज दिन में
पाँच बार फ़ोन आया था।

गरीबदास का शून्य \ अशोक चक्रधर

-अच्छा सामने देख
आसमान दिखता है?
- दिखता है।
- धरती दिखती है?
- दिखती है।
- ये दोनों जहाँ मिलते हैं
वो लाइन दिखती है?
- दिखती है साब।
इसे तो बहुत बार देखा है।
- बस ग़रीबदासयही ग़रीबी की रेखा है।
सात जनम बीत जाएँगे
तू दौड़ता जाएगा,
दौड़ता जाएगा,
लेकिन वहाँ तक
कभी नहीं पहुँच पाएगा।
और जब, पहुँच ही नहीं पाएगा
तो उठ कैसे पाएगा?
जहाँ हैं, वहीं का वहीं रह जाएगा।


गरीबदास!
क्षितिज का ये नज़ारा
हट सकता है
पर क्षितिज की रेखा
नहीं हट सकती,हमारे देश में
रेखा की ग़रीबी तो मिट सकती है,
पर ग़रीबी की रेखा
नहीं मिट सकती।

कम से कम / अशोक चक्रधर

एक घुटे हुए नेता ने
छंटे हुए शब्दों में
भावुक तकरीर दी,
भीड़ भावनाओं से चीर दी।
फिर मानव कल्याण के लिए
दिल खोल दान के लिए
अपनी टोपी घुमवाई,
पर अफ़सोस
कि खाली लौट आई।

टोपी को देखकर
नेता जी बोले-अपमान जो होना है सो हो ले।
पर धन्यवाद,
आपकी इस प्रतिक्रिया से
प्रसन्नता छा गई,
कम से कम
टोपी तो वापस आ गई।

गति का कुसूर / अशोक चक्रधर

क्या होता है कार में-
पास की चीज़ें पीछे दौड़ जाती है
तेज़ रफ़तार में!
और ये शायद
गति का ही कुसूर है
कि वही चीज़
देर तक साथ रहती है
जो जितनी दूर है।

परदे हटा के देखो / अशोक चक्रधर

ये घर है दर्द का घर, परदे हटा के देखो,
ग़म हैं हंसी के अंदर, परदे हटा के देखो।

लहरों के झाग ही तो, परदे बने हुए हैं,
गहरा बहुत समंदर, परदे हटा के देखो।

चिड़ियों का चहचहाना, पत्तों का सरसराना,
सुनने की चीज़ हैं पर, परदे हटा के देखो।

नभ में उषा की रंगत, सूरज का मुस्कुराना
ये ख़ुशगवार मंज़र, परदे हटा के देखो।

अपराध और सियासत का इस भरी सभा में,
होता हुआ स्वयंवर, परदे हटा के देखो।

इस ओर है धुआं सा, उस ओर है कुहासा,
किरणों की डोर बनकर, परदे हटा के देखो।

ऐ चक्रधर ये माना, हैं ख़ामियां सभी में,
कुछ तो मिलेगा बेहतर, परदे हटा के देखो।

कामना / अशोक चक्रधर

सुदूर कामना
सारी ऊर्जाएं
सारी क्षमताएं खोने पर,
यानि कि
बहुत बहुत
बहुत बूढ़ा होने पर,
एक दिन चाहूंगा
कि तू मर जाए।
(इसलिए नहीं बताया कि तू डर जाए।)

हां उस दिन
अपने हाथों से
तेरा संस्कार करुंगा,
उसके ठीक एक महीने बाद
मैं मरूंगा।
उस दिन मैं
तुझ मरी हुई का
सौंदर्य देखूंगा,
तेरे स्थाई मौन से सुनूंगा।

क़रीब,
और क़रीब जाते हुए
पहले मस्तक
और अंतिम तौर पर
चरण चूमूंगा।
अपनी बुढ़िया की
झुर्रियों के साथ-साथ
उसकी एक-एक ख़ूबी गिनूंगा
उंगलियों से।

झुर्रियों से ज़्यादा
ख़ूबियां होंगी
और फिर गिनते-गिनते
गिनते-गिनते
उंगलियां कांपने लगेंगी
अंगूठा थक जाएगा।
फिर मन-मन में गिनूंगा
पूरे महीने गिनता रहूंगा
बहुत कम सोउंगा,
और छिपकर नहीं
अपने बेटे-बेटी
पोते-पोतियों के सामने
आंसुओं से रोऊंगा।

एक महीना
हालांकि ज़्यादा है
पर मरना चाहूंगा
एक महीने ही बाद,
और उस दौरान
ताज़ा करूंगा
तेरी एक-एक याद।
आस्तिक हो जाऊंगा
एक महीने के लिए
बस तेरा नाम जपूंगा
और ढोऊंगा
फालतू जीवन का साक्षात् बोझ
हर पल तीसों रोज़।

इन तीस दिनों में
काग़ज़ नहीं छूउंगा
क़लम नहीं छूउंगा
अख़बार नहीं पढूंगा
संगीत नहीं सुनूंगा
बस अपने भीतर
तुझी को गुंजाउंगा
और तीसवीं रात के
गहन सन्नाटे में
खटाक से मर जाउंगा।

तेरा है / अशोक चक्रधर

तू गर दरिन्दा है तो ये मसान तेरा है,
अगर परिन्दा है तो आसमान तेरा है।

तबाहियां तो किसी और की तलाश में थीं
कहां पता था उन्हें ये मकान तेरा है।

छलकने मत दे अभी अपने सब्र का प्याला,
ये सब्र ही तो असल इम्तेहान तेरा है।

भुला दे अब तो भुला दे कि भूल किसकी थी
न भूल प्यारे कि हिन्दोस्तान तेरा है।

न बोलना है तो मत बोल ये तेरी मरज़ी
है, चुप्पियों में मुकम्मिल बयान तेरा है।

तू अपने देश के दर्पण में ख़ुद को देख ज़रा
सरापा जिस्म ही देदीप्यमान तेरा है।

हर एक चीज़ यहां की, तेरी है, तेरी है,
तेरी है क्योंकि सभी पर निशान तेरा है।

हो चाहे कोई भी तू, हो खड़ा सलीक़े से
ये फ़िल्मी गीत नहीं, राष्ट्रगान तेरा है।

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