
आज भी हैं मेरे क़दमों के निशाँ आवारा
तेरी गलियों में भटकते थे जहाँ आवारा
तुझ से क्या बिछड़े तो ये हो गई अपनी हालत
जैसे हो जाये हवाओं में धुआँ आवारा
मेरे शेरों की थी पहचान उसी के दम से
उस को खो कर हुए बेनाम-ओ-निशाँ आवारा
जिस को भी चाहा उसे टूट के चाहा "राशिद"
कम मिलेंगे तुम्हें हम जैसे यहाँ आवारा
4 Comments:
सुन्दर लिखा है... बिछडने का दर्द और मिलने की आस.... लिखते रहिये
बहुत पहले खुद मुमताज राशिद से ये ग़ज़ल मुशायरे में सुनी थी । याद दिलाने का शुक्रिया
बार-बार रशिद क्यों राशिद क्यों नहीं?
साईमा जी, गलती के लिये माफ़ी चाहता हूँ. ग़लती की जानिब ध्यान दिलवाने के लिये शुक्रिया.
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