Wednesday, June 06, 2007

आज भी हैं मेरे क़दमों के निशाँ आवारा \ मुमताज़ राशिद


आज भी हैं मेरे क़दमों के निशाँ आवारा
तेरी गलियों में भटकते थे जहाँ आवारा

तुझ से क्या बिछड़े तो ये हो गई अपनी हालत
जैसे हो जाये हवाओं में धुआँ आवारा

मेरे शेरों की थी पहचान उसी के दम से
उस को खो कर हुए बेनाम-ओ-निशाँ आवारा

जिस को भी चाहा उसे टूट के चाहा "राशिद"
कम मिलेंगे तुम्हें हम जैसे यहाँ आवारा

4 Comments:

At 10:37 pm , Blogger Mohinder56 said...

सुन्दर लिखा है... बिछडने का दर्द और मिलने की आस.... लिखते रहिये

 
At 11:27 pm , Blogger Yunus Khan said...

बहुत पहले खुद मुमताज राशिद से ये ग़ज़ल मुशायरे में सुनी थी । याद दिलाने का शुक्रिया

 
At 8:11 am , Blogger सायमा रहमान said...

बार-बार रशिद क्यों राशिद क्यों नहीं?

 
At 9:05 pm , Blogger Gaurav Pratap said...

साईमा जी, गलती के लिये माफ़ी चाहता हूँ. ग़लती की जानिब ध्यान दिलवाने के लिये शुक्रिया.

 

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