हर बात यहाँ बात बढ़ाने के लिये है \ महबूब ख़िज़ाँ

हर बात यहाँ बात बढ़ाने के लिये है
ये उम्र जो धोख़ा है तो खाने के लिये है
ये दामन-ए-हसरत है वही ख़्वाब-ए-गुरेज़ाँ
जो अपने लिये है न ज़माने के लिये है
[गुरेज़ाँ = उड़ता हुआ]
उतरे हुए चेहरे में शिकायत है किसी की
रूठी हुई रंगत है मनाने के लिये है
ग़ाफ़िल! तेरी आँखों का मुक़द्दर है अन्धेरा
ये फ़र्श तो राहों में बिछाने के लिये है
[ग़ाफ़िल = बेपरवाह]
घबरा न सितम से, न करम से, न अदा से
हर मोड़ यहाँ राह दिखाने के लिये है
3 Comments:
्गौरव जी,सभी शेर एक से बहुत बढिया हैं।
ग़ाफ़िल! तेरी आँखों का मुक़द्दर है अन्धेरा
ये फ़र्श तो राहों में बिछाने के लिये है
बहुत ही अच्छी ग़ज़ल
likhte rahie. apne kisse se ya fir gair ke afsane se ,jaise bhee ho sake logon ko jagate rahie..
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