Tuesday, June 26, 2007

पत्थर सुलग रहे थे कोई नक़्श-ए-पाअ न था \ मुमताज़ राशिद




पत्थर सुलग रहे थे कोई नक़्श-ए-पाअ न था
हम उस तरफ़ चले थे जिधर रास्ता न था


परछाइयों के शहर की तन्हाईयाँ न पूछ
अपना शरीक-ए-ग़म कोई अपने सिवा न था


यूँ देखती है गुमशुदा लम्हों के मोड़ से
इस ज़िन्दगी से जैसे कोई वास्ता न था


चेहरों पे जम गई थीं ख़यालों की उलझनें
लफ़्ज़ों की जुस्तजू में कोई बोलता न था


ख़ुर्शीद क्या उभारते दिल की तहों से हम
इस अन्जुमन में कोई सहरआशना न था

1 Comments:

At 7:15 pm , Blogger Unknown said...

hi,
Nice creation , but where are the meanings for the hard words........ [ :)]

 

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