Thursday, July 26, 2007

देखा तो मेरा साया भी मुझ से जुदा मिला \ अयाज़ झांसवी



देखा तो मेरा साया भी मुझ से जुदा मिला
सोचा तो हर किसी से मेरा सिलसिला मिला

शहर-ए-वफ़ा में अब किसे अहल-ए-वफ़ा कहें
हम से गले मिला तो वो ही बेवफ़ा मिला

फ़ुर्सत किसे थी जो मेरी हालात पूछता
हर शख़्स अपने बारे में कुछ सोचता मिला

उस ने तो ख़ैर अपनों से मोड़ा था मुँह हाय
मैं ने ये क्या किया के मैं ग़ैरों से जा मिला

Thursday, July 19, 2007

जिस तरह की हैं ये दीवारें, ये दर जैसा भी है \ अनवर मसूद



जिस तरह की हैं ये दीवारें, ये दर जैसा भी है
सर छिपाने को मयस्सर तो है, घर जैसा भी है

[मयस्सर = उपलब्ध]

उस को मुझ से, मुझ को उस से निस्बतें हैं बेशुमार
मेरी चाहत का है महवर, ये नगर जैसा भी है

[निस्बत = संबंध\ उम्मीद; बेशुमार = अनगिनत]
[महवर = केन्द्र\लक्ष्य]

चल पड़ा हूँ शौक़-ए-बेपरवाह को मुर्शद मान कर
रास्ता पुरपेच है या पुरख़तर जैसा भी है

[मुर्शद = गाईड\रास्ता बताने वाला; पुरपेच = बहुत घुमावदार\टेढ़ा-मेढ़ा]
[पुरख़तर = खतारनाक]

सब गवारा है थकन सारी दुखन सारी चुभन
एक ख़ुश्बू के लिये है ये सफ़र जैसा भी है

वो तो है मख़्सूस इक तेरी मोहब्बत के लिये
तेरा 'अन्वर' बाहुनर या बेहुनर जैसा भी है

[मख़्सूस = विशेष\ खास]

Wednesday, July 18, 2007

उस की जाम-ए-जम आँखें शीश-ए-बदन मेरा / अब्दुल्लाह कमाल



उस की जाम-ए-जम आँखें शीश-ए-बदन मेरा
उस की बन्द मुट्ठी में सारा बाँकपन मेरा

मैं ने अपने चेहरे पे सब हुनर सजाये थे
फ़ाश कर गया मुझ को सादा पैरहन मेरा

[फ़ाश = ऊजागर करना; पैरहन = वस्त्र]

दिल भी खो गया शायद शहर के सुराबों में
अब मेरी तरह से है दर्द बेवतन मेरा

[सुराब = मृगतृष्णा]

एक दश्त-ए-ख़ामोशी अब मेरा मुक़द्दर है
याद बेसदा तेरी ज़ख़्म बे-चमन मेरा

[दश्त-ए-ख़ामोशी = रेगिस्तान की चुप्पी]

रोज़ अपनी आँखों के ख़्वाब ख़ून करता हूँ
हाय किन ग़नीमों से आ पड़ा है रन मेरा

[ग़नीम = दुश्मन; रन = लड़ाई]

मग़रबी हवा ने फिर ये सन्देशा भेजा है
मुन्तज़िर तुम्हारा है ख़ुश्बुओं का बन मेरा

[मग़्रबी = पश्चिमि; मुन्तज़िर = इन्तज़ार मे]

Monday, July 16, 2007

मेरी तस्वीर में रंग और किसी का तो नहीं / मुज़फ़्फ़र वारसी







मेरी तस्वीर में रंग और किसी का तो नहीं
घेर लें मुझको सब आ के मैं तमाशा तो नहीं


ज़िन्दगी तुझसे हर इक साँस पे समझौता करूँ
शौक़ जीने का है मुझको मगर इतना तो नहीं


रूह को दर्द मिला, दर्द को आँखें न मिली
तुझको महसूस किया है तुझे देखा तो नहीं


सोचते सोचते दिल डूबने लगता है मेरा
ज़हन की तह में 'मुज़फ़्फ़र' कोई दरिया तो नही.

Sunday, July 15, 2007

आख़िरी टीस आज़माने को / अदा जाफ़री



आख़िरी टीस आज़माने को
जी तो चाहा था मुस्कुराने को

याद इतनी भी सख़्तजाँ तो नहीं
इक घरौंदा रहा है ढहाने को

संगरेज़ों में ढल गये आँसू
लोग हँसते रहे दिखाने को

ज़ख़्म-ए-नग़्मा भी लौ तो देता है
इक दिया रह गया जलाने को

जलने वाले तो जल बुझे आख़िर
कौन देता ख़बर ज़माने को

कितने मजबूर हो गये होंगे
अनकही बात मूँह पे लाने को

खुल के हँसना तो सब को आता है
लोग तरसते रहे इक बहाने को

रेज़ा रेज़ा बिखर गया इन्साँ
दिल की वीरानियाँ जताने को

हसरतों की पनाहगाहों में
क्या ठिकाने हैं सर छुपाने को

हाथ काँटों से कर लिये ज़ख़्मी
फूल बालों में इक सजाने को

आस की बात हो कि, साँस 'अदा'
ये ख़िलौने हैं टूट जाने को

Thursday, July 12, 2007

हर बात यहाँ बात बढ़ाने के लिये है \ महबूब ख़िज़ाँ



हर बात यहाँ बात बढ़ाने के लिये है
ये उम्र जो धोख़ा है तो खाने के लिये है

ये दामन-ए-हसरत है वही ख़्वाब-ए-गुरेज़ाँ
जो अपने लिये है न ज़माने के लिये है

[गुरेज़ाँ = उड़ता हुआ]

उतरे हुए चेहरे में शिकायत है किसी की
रूठी हुई रंगत है मनाने के लिये है

ग़ाफ़िल! तेरी आँखों का मुक़द्दर है अन्धेरा
ये फ़र्श तो राहों में बिछाने के लिये है

[ग़ाफ़िल = बेपरवाह]

घबरा न सितम से, न करम से, न अदा से
हर मोड़ यहाँ राह दिखाने के लिये है

Wednesday, July 11, 2007

न ख़ौफ़-ए-बर्क़ न ख़ौफ़-ए-शरर लगे है मुझे / मलिकज़ादा मन्ज़ूर अहमद



न ख़ौफ़-ए-बर्क़ न ख़ौफ़-ए-शरर लगे है मुझे
ख़ुद अपने बाग़ के फूलों से डर लगे है मुझे

[ख़ौफ़=डर; बर्क़=बिजली; शरर=चिंगारी]

अजीब दर्द का रिश्ता है सारी दुनिया में
कहीं हो जलता मकाँ अपना घर लगे है मुझे

मैं एक जाम हूँ किस-किस के होंठ तक पहुँचूँ
ग़ज़ब की प्यास लिये हर बशर लगे है मुझे

[बशर=इंसान]

तराश लेता हूँ उस से भी आईने "मन्ज़ूर"
किसी के हाथ का पत्थर अगर लगे है मुझे

[तराशना=आकार में लाना / काटना]

Tuesday, July 10, 2007

पुरखों की रिवायत है इसे तुम भी निभाओ / परवेज़ बागी




पुरखों की रिवायत है इसे तुम भी निभाओ
प्यासों को समन्दर से बहुत दूर बसाओ

[रिवायत = परम्परा]

यूँ फ़िक्र में हर शख़्स की ख़ुद को न घुलाओ
जीना है तो फिर दिल को भी पत्थर का बनाओ


ये याद रहे ज़ुल्म की हद होती है यारो
तुम हम को सताओ मगर इतना न सताओ

[ हद = सीमा]

हर ख़्वाब-ए-कोहन तिश्ना-ए-तस्वीर है जब तक
तुम कोई नया ख़्वाब न लोगों को दिखाओ

[ख़्वाब-ए-कोहन = पुराना सपना; तिश्ना = प्यास]
[तिश्ना-ए-तस्वीर = महसूस/पूरा होने का इन्तेज़ार ]

जागे हुये सोने पे रज़ामन्द नहीं हैं
सोये हुये लोगों को न 'परवेज़' जगाओ

[रज़ामन्द = राज़ी]

Monday, July 09, 2007

सू-ए-मैकदा न जाते तो कुछ और बात होती \ आगा हश्र





सू-ए-मैकदा न जाते तो कुछ और बात होती
वो निगाह से पिलाते तो कुछ और बात होती

[सू-ए-मैकदा=शराबखाने की ओर]

गो हवा-ए-गुलसिताँ ने मेरे दिल की लाज रख ली
वो नक़ाब ख़ुद उठाते तो कुछ और बात होती


ये बजा कली ने खिल कर किया गुलसिताँ मुअत्तर
मगर आप मुस्कुराते तो कुछ और बात होती

[मुअत्तर= इत्र से भरा]

ये खुले खुले से गेसू, इन्हें लाख तू सँवारे
मेरे हाथ से सँवरते, तो कुछ और बात होती

गो हरम के रास्ते से वो पहुँच गये ख़ुदा तक
तेरी राहगुज़र से जाते तो कुछ और बात होती

Get this widget | Share | Track details