Wednesday, June 27, 2007

कहाँ की गूँज दिल-ए-नातवाँ में रहती है \ अहमद मुश्ताक़


कहाँ की गूँज दिल-ए-नातवाँ में रहती है
कि थर-थरी सी अजब जिस्म-ओ-जाँ में रहती है

[दिल-ए-नातवाँ = कमज़ोर दिल; जिस्म = शरीर]


मज़ा तो ये है कि वो ख़ुद तो है नये घर में
और उस की याद पुराने मकाँ में रहती है


अगरचे उस से मेरे बेतकल्लुफ़ी है बहुत
झिझक सी एक मगर दरमियाँ में रहती है

[बेतकल्लुफ़ी = सहजता; झिझक = हिचक; दरमियाँ = बीच]


पता तो फ़स्ल-ए-गुल-ओ-लाला का नहीं मालूम
सुना है क़ुर्ब-ओ-वार-ए-ख़िज़ाँ में रहती है

[फ़स्ल-ए-गुल-ओ-लाला = फ़ूलों का मौसम; ख़िज़ाँ = पतझर]


मैं कितना वहम करूँ लेकिन इक शुआ-ए-यक़ीं
कहीं नवाह-ए-दिल-ए-बद-गुमाँ में रहती है

[वहम = शक; शुआ-ए-यक़ीँ = विश्वास की किरण]
[नवाह = वातावरण; दिल-ए-बद-गुमाँ = संशय करने वाला दिल]


हज़ार जान खपाता रहूँ मगर फिर भी
कमी सी कुछ मेरे तर्ज़-ए-बयाँ में रहती है

[तर्ज़-ए-बयाँ = बोलने\अभिव्यक्ती का तरीका]

1 Comments:

At 11:50 am , Blogger इष्ट देव सांकृत्यायन said...

मैं कितना वहम करूँ लेकिन इक शुआ-ए-यक़ीं
कहीं नवाह-ए-दिल-ए-बद-गुमाँ में रहती है
वह क्या ख़ूब कहा है. बधाई इस पेशकश के लिए.

 

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