Thursday, August 23, 2012

आत्मा का दरद



 डीअरेस्ट भौजाई,
             क्या कहें, आप तो हैं एकदमे पुरबाई. हे हे हे... मजाक था.. खिसियायीयेगा मत. आपको तो पते है के आपके बारे में सोचते ही मन मुस्कुराने लगता है, ऑटोमैटिके. बाकी का सब समाचार ठीके है (ठीक नहीं है, लेकिन सच बोलेंगे तो आप घबरा जाएँगी). आज हम दिल का सब बात खोल के रख रहे हैं आपके सामने.
भौजाई, आपको जब हम पहिला बार स्टेसन पर देखे थे तबे मन प्रफुल्लित हो गया था. एकदम भरा-पूरा  हुआ सरीर, संवारका चेहरा, हाथ में मेहंदी का लाली एकदम समझिये की मन गदगदा गया था, साथे-साथे धर्मात्मा के किसमत से जलनो हुआ, झूठ काहे बोलें. भर रास्ता हम और बरजेस्वा आप ही का बारे में बतियाते हुए आये. और जब आपके घरे गए तो आपका चुटकुला पकड़ने का स्पीड तो मने मोह ले गया.
सुरुये से साँझ होते ही हम और बरजेस्वा आपके बारे में ही बतियाते हैं. और धर्मात्मा आप पर जो जुलुम करता होगा सोच-सोच के मन मरुआ जाता है.
और क्या-क्या बताएं. आपको देखते ही मन झनझनाने लगता है. किसी चीज में मन नहीं लगता है. एगो किताब में देवर के हक़ का बरनन था, मन तो गुदगुदा गया. बरजेस्वा समझाया के ई सब झूठ लिखा हुआ है. तब पता चला. सब साला चूतिये समझता है. गलत सलत लिख के नौजवान सब को गुमराह करता है. उम्मीद नहीं था. हमको का पाता था के किताबो में गलत इनफोर्मेसन हो सकता है. 

थैंक्यू बरजेस.

भौजाई, जब बरजेस के मम्मी-पापा आये थे और आप हमारे फ्लैट पर आयी थी, तो आपको देखकर मन खुश हो गया. मन में इमरान हासमी के सब सिनेमा का गाना बजने लगा था. मर्डर से लेके जिस्म-३ तक का. सिनेमा का सीनों आया दिमाग में. (सुबह तक करू प्यार). कई बार तो २-२ गाना साथे-साथे बज रहा था. कुछो बुझा नहीं रहा था. मन पूरा कन्फुज हो गया. और तो और आपका रोक-रोक के हसना,जरती काट के. मन तो किया के जुने में होली खेल ले एक राउंड. वैसे एगो लड़कपन में एगो खेलो था जनवरी जी..फ़रवरी जी... मार्च जी.. हे हे...जेंट्स वाला खेल था. छोड़ दीजिये. थोडा नॉन भेज है. आ मन नहीं मान रहा है तो छठवा महिना तक गिन के देख लीजिये. 

जिस दिन आपका अक्सीडेंट हुआ, हमको लग गया था के साला धर्मात्मा रोड पर पीछे का सोक एब्जोर्बर का करेंट लेने के लिए अगिला ब्रेक मारा होगा और हीरोगिरी में जिरोगिरी हो गया. उस दिन बरजेस्वा हरामखोर जान बुझ के आपको टचा रहा था और देखाया के अनजाने में हो रहा है. मन तो किया के एक लप्पड़ खीच दे सार को. साला लाला बहुत चालू है. समझ के रहिएगा. उसके पेट में ढेर घाट है. काँटी खिलानें पर पेच हगेगा. जब आप बेड पर सोयी थी और हम आपका गोड़ताने थे, आपका ठुड्डी हमको  दिल में आया के चेहरा का पूरा दीदार कर लेवे. और हम धर्मात्मा को गरिया रहे थे, मने मने. काहे पटका रे, काहे पटका, सार निरमोही. आपका चोट देख के त मन रो दिया. और आपका पार्किंग में तो गजिबे हो गया. जब आप बार पीछे कर के फहराई के मूडी हिलाई तो केतना बज्रपात हो गया. हम सोचे के हे रे हनुमान जी, जो एक बित्ता के बार में ई हाल हो रहा है तो जब ई नारी कमर इतना बार लम्बा कर लेगी तो केतना खुशबु निकलेगा. साला मेरी जिनगी में तो उजासे नहीं होगा कबो जुलिफ के अंधारा से (वैसे अभियो कहा हो रहा है). भोला बाबा सबको मौरी पहिरा रहे हैं और हमी है जिस पर उनका नज़र नहीं जा रहा है.
आप परब तेहवार के लिए नईहर गयी थी. अच्छा लगा. आप पर थोडा अत्याचार कम हुआ होगा.
बाकि सब ठीके है. बरजेस्वा दिनों में कबो-कबो आपका नाम ले के मैसेज कर देता है और मन बिगड़ जाता है, आपका नाम देख के. अब मत पूछिये काहे. आप तो सब बूझिये रही है ना. उ वाला गाना था ना के  "पाता-पाता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है, जानें न जाने गुल ही न जाने बाग तो सारा जाने है ". वहिये हाल है.

 हाली से एगो पाती भेजिए. अब इन्तजार नहीं तो रहा है.

होली के इन्तेजार में रात दिन पलछिन, (दुर्भाग्यबस) आपका देवर,

डब्लू सिंघ

Sunday, September 30, 2007

बदलते वक़्त का इक सिलसिला सा लगता है \ मंज़र भोपाली

बदलते वक़्त का इक सिलसिला सा लगता है
के जब भी देखो उसे दूसरा-सा लगता है

तुम्हारा हुस्न किसी आदमी का हुस्न नहीं
किसी बुज़ुर्ग की सच्ची दुआ सा लगता है

तेरी निगाह को तमीज़ रन्ग-ओ-नूर कहाँ
मुझे तो ख़ून भी रन्ग-ए-हिना सा लगता है

दमाग़-ओ-दिल हों अगर मुत्मईं तो छाओं है धूप
थपेड़ा लू का भी ठन्डी हवा सा लगता है

[मुत्मईं = सन्तुष्ट; लू = गर्मी की गर्म हवायें]

वो छत पे आ गया बेताब हो के आख़िर
ख़ुदा भी आज शरीक-ए-दुआ सा लगता है

तुम्हारा हाथ जो आया है हाथ में मेरे
अब ऐतबार का मौसम हरा-सा लगता है

निकल के देखो कभी नफ़रतों के पिन्जरे से
तमाम शहर का "मंज़र" खुला सा लगता है

Monday, September 03, 2007

हज़ार ग़म थे मेरी ज़िन्दगी अकेली थी/ माहिर रतलामी

हज़ार ग़म थे मेरी ज़िन्दगी अकेली थी
ख़ुशी जहाँ की मेरे वास्ते पहेली थी


वो आज बच के निकलते हैं मेरे साये से
कि मैं ने जिन के लिये ग़म की धूप झेली थी

जुदा हुई न कभी मुझ से गर्दिश-ए-दौराँ
मेरी हयात की बचपन से ये सहेली थी

[गर्दिश-ए-दौराँ=समय का पहिया; हयात=ज़िन्दगी]

चढ़ा रहे हैं वो ही आज आस्तीं मुझ पर
कि जिन की पीठ पे कल तक मेरी हथेली थी


अब उन की क़ब्र पे जलता नहीं दिया कोई
कि जिन की दहर में रोशन बहुत हवेली थी

[ दहर=दुनिया]

वो झुक के फिर मेरी तुर्बत पे कर रहे हैं सलाम
इसी अदा ने तो "महिर" की जान ले ली थी

[तुर्बत=कब्र]

Thursday, July 26, 2007

देखा तो मेरा साया भी मुझ से जुदा मिला \ अयाज़ झांसवी



देखा तो मेरा साया भी मुझ से जुदा मिला
सोचा तो हर किसी से मेरा सिलसिला मिला

शहर-ए-वफ़ा में अब किसे अहल-ए-वफ़ा कहें
हम से गले मिला तो वो ही बेवफ़ा मिला

फ़ुर्सत किसे थी जो मेरी हालात पूछता
हर शख़्स अपने बारे में कुछ सोचता मिला

उस ने तो ख़ैर अपनों से मोड़ा था मुँह हाय
मैं ने ये क्या किया के मैं ग़ैरों से जा मिला

Thursday, July 19, 2007

जिस तरह की हैं ये दीवारें, ये दर जैसा भी है \ अनवर मसूद



जिस तरह की हैं ये दीवारें, ये दर जैसा भी है
सर छिपाने को मयस्सर तो है, घर जैसा भी है

[मयस्सर = उपलब्ध]

उस को मुझ से, मुझ को उस से निस्बतें हैं बेशुमार
मेरी चाहत का है महवर, ये नगर जैसा भी है

[निस्बत = संबंध\ उम्मीद; बेशुमार = अनगिनत]
[महवर = केन्द्र\लक्ष्य]

चल पड़ा हूँ शौक़-ए-बेपरवाह को मुर्शद मान कर
रास्ता पुरपेच है या पुरख़तर जैसा भी है

[मुर्शद = गाईड\रास्ता बताने वाला; पुरपेच = बहुत घुमावदार\टेढ़ा-मेढ़ा]
[पुरख़तर = खतारनाक]

सब गवारा है थकन सारी दुखन सारी चुभन
एक ख़ुश्बू के लिये है ये सफ़र जैसा भी है

वो तो है मख़्सूस इक तेरी मोहब्बत के लिये
तेरा 'अन्वर' बाहुनर या बेहुनर जैसा भी है

[मख़्सूस = विशेष\ खास]

Wednesday, July 18, 2007

उस की जाम-ए-जम आँखें शीश-ए-बदन मेरा / अब्दुल्लाह कमाल



उस की जाम-ए-जम आँखें शीश-ए-बदन मेरा
उस की बन्द मुट्ठी में सारा बाँकपन मेरा

मैं ने अपने चेहरे पे सब हुनर सजाये थे
फ़ाश कर गया मुझ को सादा पैरहन मेरा

[फ़ाश = ऊजागर करना; पैरहन = वस्त्र]

दिल भी खो गया शायद शहर के सुराबों में
अब मेरी तरह से है दर्द बेवतन मेरा

[सुराब = मृगतृष्णा]

एक दश्त-ए-ख़ामोशी अब मेरा मुक़द्दर है
याद बेसदा तेरी ज़ख़्म बे-चमन मेरा

[दश्त-ए-ख़ामोशी = रेगिस्तान की चुप्पी]

रोज़ अपनी आँखों के ख़्वाब ख़ून करता हूँ
हाय किन ग़नीमों से आ पड़ा है रन मेरा

[ग़नीम = दुश्मन; रन = लड़ाई]

मग़रबी हवा ने फिर ये सन्देशा भेजा है
मुन्तज़िर तुम्हारा है ख़ुश्बुओं का बन मेरा

[मग़्रबी = पश्चिमि; मुन्तज़िर = इन्तज़ार मे]

Monday, July 16, 2007

मेरी तस्वीर में रंग और किसी का तो नहीं / मुज़फ़्फ़र वारसी







मेरी तस्वीर में रंग और किसी का तो नहीं
घेर लें मुझको सब आ के मैं तमाशा तो नहीं


ज़िन्दगी तुझसे हर इक साँस पे समझौता करूँ
शौक़ जीने का है मुझको मगर इतना तो नहीं


रूह को दर्द मिला, दर्द को आँखें न मिली
तुझको महसूस किया है तुझे देखा तो नहीं


सोचते सोचते दिल डूबने लगता है मेरा
ज़हन की तह में 'मुज़फ़्फ़र' कोई दरिया तो नही.

Sunday, July 15, 2007

आख़िरी टीस आज़माने को / अदा जाफ़री



आख़िरी टीस आज़माने को
जी तो चाहा था मुस्कुराने को

याद इतनी भी सख़्तजाँ तो नहीं
इक घरौंदा रहा है ढहाने को

संगरेज़ों में ढल गये आँसू
लोग हँसते रहे दिखाने को

ज़ख़्म-ए-नग़्मा भी लौ तो देता है
इक दिया रह गया जलाने को

जलने वाले तो जल बुझे आख़िर
कौन देता ख़बर ज़माने को

कितने मजबूर हो गये होंगे
अनकही बात मूँह पे लाने को

खुल के हँसना तो सब को आता है
लोग तरसते रहे इक बहाने को

रेज़ा रेज़ा बिखर गया इन्साँ
दिल की वीरानियाँ जताने को

हसरतों की पनाहगाहों में
क्या ठिकाने हैं सर छुपाने को

हाथ काँटों से कर लिये ज़ख़्मी
फूल बालों में इक सजाने को

आस की बात हो कि, साँस 'अदा'
ये ख़िलौने हैं टूट जाने को

Thursday, July 12, 2007

हर बात यहाँ बात बढ़ाने के लिये है \ महबूब ख़िज़ाँ



हर बात यहाँ बात बढ़ाने के लिये है
ये उम्र जो धोख़ा है तो खाने के लिये है

ये दामन-ए-हसरत है वही ख़्वाब-ए-गुरेज़ाँ
जो अपने लिये है न ज़माने के लिये है

[गुरेज़ाँ = उड़ता हुआ]

उतरे हुए चेहरे में शिकायत है किसी की
रूठी हुई रंगत है मनाने के लिये है

ग़ाफ़िल! तेरी आँखों का मुक़द्दर है अन्धेरा
ये फ़र्श तो राहों में बिछाने के लिये है

[ग़ाफ़िल = बेपरवाह]

घबरा न सितम से, न करम से, न अदा से
हर मोड़ यहाँ राह दिखाने के लिये है

Wednesday, July 11, 2007

न ख़ौफ़-ए-बर्क़ न ख़ौफ़-ए-शरर लगे है मुझे / मलिकज़ादा मन्ज़ूर अहमद



न ख़ौफ़-ए-बर्क़ न ख़ौफ़-ए-शरर लगे है मुझे
ख़ुद अपने बाग़ के फूलों से डर लगे है मुझे

[ख़ौफ़=डर; बर्क़=बिजली; शरर=चिंगारी]

अजीब दर्द का रिश्ता है सारी दुनिया में
कहीं हो जलता मकाँ अपना घर लगे है मुझे

मैं एक जाम हूँ किस-किस के होंठ तक पहुँचूँ
ग़ज़ब की प्यास लिये हर बशर लगे है मुझे

[बशर=इंसान]

तराश लेता हूँ उस से भी आईने "मन्ज़ूर"
किसी के हाथ का पत्थर अगर लगे है मुझे

[तराशना=आकार में लाना / काटना]

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