Thursday, June 14, 2007

निगाह-ए-साक़ी-ए-नामहरबाँ ये क्या जाने / मजरूह सुल्तानपुरी





निगाह-ए-साक़ी-ए-नामहरबाँ ये क्या जाने
कि टूट जाते हैं ख़ुद दिल के साथ पैमाने


मिली जब उनसे नज़र बस रहा था एक जहाँ
हटी निगाह तो चारों तरफ़ थे वीराने


हयात लग़्ज़िशे-पैहम का नाम है साक़ी
लबों से जाम लगा भी सकूँ ख़ुदा जाने


वो तक रहे थे हमीं हँस के पी गए आँसू
वो सुन रहे थे हमीं कह सके न अफ़साने


ये आग और नहीं दिल की आग है नादाँ
चिराग़ हो के न हो जल बुझेंगे परवाने


फ़रेब-ए-साक़ी-ए-महफ़िल न पूछिये "मजरूह"
शराब एक है बदले हुए हैं पैमाने

1 Comments:

At 1:28 am , Blogger Gauri Shevatekar said...

गौरवजी़ नमस्ते । आप का चिठ्ठा बहुत अछ्छा लगा । मैं आप से आप के ब्लाग के बारे मे पुछना चाहती थी । आप का लेआउट-टेम्पलेट कौन सा है तथा मैं भी आर्चीव मे अपने चिठ्ठो का नाम रखना चाहती हूँ पर कैसे करना है ये नही जानती। अगर आप इस बारे मे मुझे जानकारी दे तो मै आप कि बडी आभारी रहूँगी । धन्यवाद ।

 

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