Thursday, June 07, 2007

सुन ली जो ख़ुदा ने वो दुआ तुम तो नहीं हो / बशीर बद्र


सुन ली जो ख़ुदा ने वो दुआ तुम तो नहीं हो
दरवाज़े पे दस्तक की सदा तुम तो नहीं हो

सिमटी हुई शर्माई हुई रात की रानी
सोई हुई कलियों की हया तुम तो नहीं हो

महसूस किया तुम को तो गीली हुई पल्कें
भीगे हुये मौसम की अदा तुम तो नहीं हो

इन अजनबी राहों में नहीं कोई भी मेरा
किस ने मुझे यूँ अपना कहा तुम तो नहीं हो

2 Comments:

At 12:24 am , Blogger राजीव रंजन प्रसाद said...

गौरव जी
बशीर बद्र की तो आज तुलना ही नही हो सकती..
क्या खूब लिखते हैं।

*** राजीव रंजन प्रसाद

 
At 6:16 am , Blogger sanjay patel said...

बशीर भाई हमारे दौर के ऐसे ह्स्ताक्षर हैं जो दो मिसरों में ज़िन्दगी का सारी सचाइयां उडे़ल देते हैं.
गुज़िश्ता तीस बरसों में बशीर भाई जैसी लोकप्रियता कुछ ही लोगों को मिल पाई है. हो सकता है बहुत से लोग मेरी बात से इत्तेफ़ाक़ न करें लेकिन मै मानता हूं कि बशीर बद्र उर्दू से ज़्यादा हिन्दी वालों के चहेते हैं.लाखों लोगों को कविता की समझ की ओर लाने में बशीर भाई का कारनामा रेखांकित करने जैसा है. शायरी में मिठास और ग़ज़ल के चंद अशाअरों मे जो वज़न और गहराई नज़र आती है वह आम आदमी के मन को छूती है . कभी हिम्मत देती है तो कभी नसीहत.बकौल खु़द बशीर बद्र ...ग़ज़ल के एक शेर के दो मिसरों में इतनी ताक़त होती है जितनी एक पूरे नावेल भी में भी नही होती.बशीर बद्र हमारे अदब की आन हैं..उनके इंटरनेट पर मौजूद हो जाने से लगता है मेरा पी.सी.महक उठा है.

 

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