Sunday, September 30, 2007

बदलते वक़्त का इक सिलसिला सा लगता है \ मंज़र भोपाली

बदलते वक़्त का इक सिलसिला सा लगता है
के जब भी देखो उसे दूसरा-सा लगता है

तुम्हारा हुस्न किसी आदमी का हुस्न नहीं
किसी बुज़ुर्ग की सच्ची दुआ सा लगता है

तेरी निगाह को तमीज़ रन्ग-ओ-नूर कहाँ
मुझे तो ख़ून भी रन्ग-ए-हिना सा लगता है

दमाग़-ओ-दिल हों अगर मुत्मईं तो छाओं है धूप
थपेड़ा लू का भी ठन्डी हवा सा लगता है

[मुत्मईं = सन्तुष्ट; लू = गर्मी की गर्म हवायें]

वो छत पे आ गया बेताब हो के आख़िर
ख़ुदा भी आज शरीक-ए-दुआ सा लगता है

तुम्हारा हाथ जो आया है हाथ में मेरे
अब ऐतबार का मौसम हरा-सा लगता है

निकल के देखो कभी नफ़रतों के पिन्जरे से
तमाम शहर का "मंज़र" खुला सा लगता है

Monday, September 03, 2007

हज़ार ग़म थे मेरी ज़िन्दगी अकेली थी/ माहिर रतलामी

हज़ार ग़म थे मेरी ज़िन्दगी अकेली थी
ख़ुशी जहाँ की मेरे वास्ते पहेली थी


वो आज बच के निकलते हैं मेरे साये से
कि मैं ने जिन के लिये ग़म की धूप झेली थी

जुदा हुई न कभी मुझ से गर्दिश-ए-दौराँ
मेरी हयात की बचपन से ये सहेली थी

[गर्दिश-ए-दौराँ=समय का पहिया; हयात=ज़िन्दगी]

चढ़ा रहे हैं वो ही आज आस्तीं मुझ पर
कि जिन की पीठ पे कल तक मेरी हथेली थी


अब उन की क़ब्र पे जलता नहीं दिया कोई
कि जिन की दहर में रोशन बहुत हवेली थी

[ दहर=दुनिया]

वो झुक के फिर मेरी तुर्बत पे कर रहे हैं सलाम
इसी अदा ने तो "महिर" की जान ले ली थी

[तुर्बत=कब्र]

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