बदलते वक़्त का इक सिलसिला सा लगता है \ मंज़र भोपाली
बदलते वक़्त का इक सिलसिला सा लगता है
के जब भी देखो उसे दूसरा-सा लगता है
तुम्हारा हुस्न किसी आदमी का हुस्न नहीं
किसी बुज़ुर्ग की सच्ची दुआ सा लगता है
तेरी निगाह को तमीज़ रन्ग-ओ-नूर कहाँ
मुझे तो ख़ून भी रन्ग-ए-हिना सा लगता है
दमाग़-ओ-दिल हों अगर मुत्मईं तो छाओं है धूप
थपेड़ा लू का भी ठन्डी हवा सा लगता है
[मुत्मईं = सन्तुष्ट; लू = गर्मी की गर्म हवायें]
वो छत पे आ गया बेताब हो के आख़िर
ख़ुदा भी आज शरीक-ए-दुआ सा लगता है
तुम्हारा हाथ जो आया है हाथ में मेरे
अब ऐतबार का मौसम हरा-सा लगता है
निकल के देखो कभी नफ़रतों के पिन्जरे से
तमाम शहर का "मंज़र" खुला सा लगता है