Monday, September 03, 2007

हज़ार ग़म थे मेरी ज़िन्दगी अकेली थी/ माहिर रतलामी

हज़ार ग़म थे मेरी ज़िन्दगी अकेली थी
ख़ुशी जहाँ की मेरे वास्ते पहेली थी


वो आज बच के निकलते हैं मेरे साये से
कि मैं ने जिन के लिये ग़म की धूप झेली थी

जुदा हुई न कभी मुझ से गर्दिश-ए-दौराँ
मेरी हयात की बचपन से ये सहेली थी

[गर्दिश-ए-दौराँ=समय का पहिया; हयात=ज़िन्दगी]

चढ़ा रहे हैं वो ही आज आस्तीं मुझ पर
कि जिन की पीठ पे कल तक मेरी हथेली थी


अब उन की क़ब्र पे जलता नहीं दिया कोई
कि जिन की दहर में रोशन बहुत हवेली थी

[ दहर=दुनिया]

वो झुक के फिर मेरी तुर्बत पे कर रहे हैं सलाम
इसी अदा ने तो "महिर" की जान ले ली थी

[तुर्बत=कब्र]

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