Thursday, November 30, 2006

Mahima.....

सोमरस पान
लेखक: काका हाथरसी
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भारतीय इतिहास का, कीजे अनुसंधान
देव-दनुज-किन्नर सभी, किया सोमरस पान
किया सोमरस पान, पियें कवि, लेखक, शायर
जो इससे बच जाये, उसे कहते हैं 'कायर'

कहँ 'काका', कवि 'बच्चन' ने पीकर दो प्याला
दो घंटे में लिख डाली, पूरी 'मधुशाला'
भेदभाव से मुक्त यह, क्या ऊँचा क्या नीच
अहिरावण पीता इसे, पीता था मारीच

पीता था मारीच, स्वर्ण- मृग रूप बनाया
पीकर के रावण सीता जी को हर लाया
कहँ 'काका' कविराय, सुरा की करो न निंदा
मधु पीकर के मेघनाद पहुँचा किष्किंधा

ठेला हो या जीप हो, अथवा मोटरकार
ठर्रा पीकर छोड़ दो, अस्सी की रफ़्तार
अस्सी की रफ़्तार, नशे में पुण्य कमाओ
जो आगे आ जाये, स्वर्ग उसको पहुँचाओ

पकड़ें यदि सार्जेंट, सिपाही ड्यूटी वाले
लुढ़का दो उनके भी मुँह में, दो चार पियाले
पूरी बोतल गटकिये, होय ब्रह्म का ज्ञान
नाली की बू, इत्र की खुशबू एक समान

खुशबू एक समान, लड़्खड़ाती जब जिह्वा
'डिब्बा' कहना चाहें, निकले मुँह से 'दिब्बा'
कहँ 'काका' कविराय, अर्ध-उन्मीलित अँखियाँ
मुँह से बहती लार, भिनभिनाती हैं मखियाँ

प्रेम-वासना रोग में, सुरा रहे अनुकूल
सैंडिल-चप्पल-जूतियां, लगतीं जैसे फूल
लगतीं जैसे फूल, धूल झड़ जाये सिर की
बुद्धि शुद्ध हो जाये, खुले अक्कल की खिड़की
प्रजातंत्र में बिता रहे क्यों जीवन फ़ीका
बनो 'पियक्कड़चंद', स्वाद लो आज़ादी का

एक बार मद्रास में देखा जोश-ख़रोश
बीस पियक्कड़ मर गये, तीस हुये बेहोश
तीस हुये बेहोश, दवा दी जाने कैसी
वे भी सब मर गये, दवाई हो तो ऐसी
चीफ़ सिविल सर्जन ने केस कर दिया डिसमिस
पोस्ट मार्टम हुआ, पेट में निकली 'वार्निश'

Wednesday, November 22, 2006

Gratitude...

हे ग्राम देवता ! नमस्कार ! / रामकुमार वर्मा
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हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
सोने-चाँदी से नहीं किंतु
तुमने मिट्टी से दिया प्यार ।
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
जन कोलाहल से दूर-
कहीं एकाकी सिमटा-सा निवास,
रवि-शशि का उतना नहीं
कि जितना प्राणों का होता प्रकाश
श्रम वैभव के बल पर करते हो
जड़ में चेतन का विकास
दानों-दानों में फूट रहे
सौ-सौ दानों के हरे हास,
यह है न पसीने की धारा,
यह गंगा की है धवल धार ।
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
अधखुले अंग जिनमें केवल
है कसे हुए कुछ अस्थि-खंड
जिनमें दधीचि की हड्डी है,
यह वज्र इंद्र का है पंचंड !
जो है गतिशील सभी ऋतु में
गर्मी वर्षा हो या कि ठंड
जग को देते हो पुरस्कार
देकर अपने को कठिन दंड !
झोपड़ी झुकाकर तुम अपनी
ऊँचे करते हो राज-द्वार !
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
ये खेत तुम्हारी भरी-सृष्टि
तिल-तिल कर बोये प्राण-बीज
वर्षा के दिन तुम गिनते हो,
यह परिवा है, यह दूज, तीज
बादल वैसे ही चले गए,
प्यासी धरती पाई न भीज
तुम अश्रु कणों से रहे सींच
इन खेतों की दुःख भरी खीज
बस चार अन्न के दाने ही
नैवेद्य तुम्हारा है उदार
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
यह नारी-शक्ति देवता की
कीचड़ है जिसका अंग-राग
यह भीर हुई सी बदली है
जिसमें साहस की भरी आग,
कवियो ! भूलो उपमाएँ सब
मत कहो, कुसुम, केसर, पराग,
यह जननी है, जिसके गीतों से
मृत अंकर भी उठे जाग,
उसने जीवन भर सीखा है,
सुख से करना दुख का दुलार !
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
ये राम-श्याम के सरल रूप,
मटमैले शिशु हँस रहे खूब,
ये मुन्न, मोहन, हरे कृष्ण,
मंगल, मुरली, बच्चू, बिठूब,
इनको क्या चिंता व्याप सकी,
जैसे धरती की हरी दूब
थोड़े दिन में ही ठंड, झड़ी,
गर्मी सब इनमें गई डूब,
ये ढाल अभी से बने
छीन नेने को दुर्दिन के प्रहार !
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
तुम जन मन के अधिनायक हो
तुम हँसो कि फूले-फले देश
आओ, सिंहासन पर बैठो
यह राज्य तुम्हारा है अशेष !
उर्वरा भूमि के नये खेत के
नये धान्य से सजे वेश,
तुम भू पर रहकर भूमि-भार
धारण करते हो मनुज-शेष
अपनी कविता से आज तुम्हारी
विमल आरती लूँ उतार !
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

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ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है / रामावतार त्यागी
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ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है
इक हसरत थी कि आंचल का मुझे प्यार मिले
मैंने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले

मुझको पैदा किया संसार में दो लाशों ने
और बर्बाद किया क़ौम के अय्याशों ने
तेरे दामन बसा मौत से ज़्यादा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है

जो भी तस्वीर बनाता हूं बिगड़ जाती है
देखते-देखते दुनिया ही उजड़ जाती है
मेरी कश्ती तेरा तूफ़ान से वादा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है

तूने जो दर्द दिया उसकी क़सम खाता हूं
इतना ज़्यादा है कि एहसां से दबा जाता हूं
मेरी तक़दीर बता और तक़ाज़ा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है

मैंने जज़्बात के संग खेलते दौलत देखी
अपनी आंखों से मोहब्बत की तिजारत देखी
ऐसी दुनिया में मेरे वास्ते रक्खा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है

आदमी चाहे तो तक़दीर बदल सकता है
पूरी दुनिया की वो तस्वीर बदल सकता है
आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है

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Once Upon A Time Whtn I Lived....

क्षण भर को क्यों प्यार किया था? / हरिवंशराय बच्चन
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अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर,
तुमने क्यों मेरे चरणों में
अपना तन-मन वार दिया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
‘यह अधिकार कहाँ से लाया!’
और न कुछ मैं कहने पाया -
मेरे अधरों पर निज अधरों का
तुमने रख भार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में -
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में
तुमने भर उद्गार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

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If Silence Speaks

सजल स्नेह का भूषण केवल / शमशेर बहादुर सिंह
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सजल स्नेह का भूषण केवल
सरल प्रेम की सुंदरता;
छिपी मर्म-सी कोमल
उर में सहज, मिलन की आतुरता ।
ओठों पर विषाद की दृढ़ता,
पलकों में आगत के प्रश्न;
साँसों में स्वर बढ़ता
करुणा का; अलकों में भावी स्वप्न ।
सहसा आ सम्मुख चुपचाप
संध्या की प्रतिमा-सी मौन
करती प्रेमालाप,
प्रेयसि नहीं, परिचिता-सी वह कौन ?
कर्मों की छाया-सी गूढ़
मन की गोचर स्त्रीत्व अतीत,
स्नेह रही है ढूँढ--
धूमिल-सी है यद्यपि स्नेह-प्रतीती ।
मेरे अंतर में भर जाती
केवल अपना करुणा-राग:
वह अजान सुलगाती
क्यों नव यौवन में अबोध वैराग ?

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Smell...The Dew Drops

एक नीला आईना बेठोस / शमशेर बहादुर सिंह
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एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

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Emotions...At Purest Form...

गुलाबी चूड़ियाँ / नागार्जुन
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प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!

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Monday, November 06, 2006

Death Of A Dream

सो न सका
कवि: रमानाथ अवस्थी
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सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात
मेरे बहुत चाहने पर भी नींद न मुझ तक आई
ज़हर भरी जादूगरनी-सी मुझको लगी जुन्हाई
मेरा मस्तक सहला कर बोली मुझसे पुरवाई
दूर कहीं दो आँखें भर-भर आई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात
गगन बीच रुक तनिक चन्द्रमा लगा मुझे समझाने
मनचाहा मन पा लेना है खेल नहीं दीवाने
और उसी क्षण टूटा नभ से एक नखत अनजाने
देख जिसे तबियत मेरी घबराई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात
रात लगी कहने सो जाओ देखो कोई सपना
जग ने देखा है बहुतों का रोना और तड़पना
यहाँ तुम्हारा क्या, कोई भी नहीं किसी का अपना
समझ अकेला मौत मुझे ललचाई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात
मुझे सुलाने की कोशिश में जागे अनगिन तारे
लेकिन बाज़ी जीत गया मैं वे सबके सब हारे
जाते-जाते चाँद कह गया मुझसे बड़े सकारे
एक कली मुरझाने को मुसकाई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात
This one is quite touching . It touched my heart ..

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