शिकस्त / साहिर लुधियानवी
अपने सीने से लगाये हुये उम्मीद की लाश
मुद्दतों ज़ीस्त को नाशाद किया है मैंने
तूने तो एक ही सदमे से किया था दो चार
दिल को हर तरह से बर्बाद किया है मैनें
जब भी राहों में नज़र आये हरीरी मलबूस
सर्द आहों से तुझे याद किया है मैंनें
मुद्दतों ज़ीस्त को नाशाद किया है मैंने
तूने तो एक ही सदमे से किया था दो चार
दिल को हर तरह से बर्बाद किया है मैनें
जब भी राहों में नज़र आये हरीरी मलबूस
सर्द आहों से तुझे याद किया है मैंनें
[लाश = शव ; मुद्दत = समय का लम्बा दौर ]
[ जीस्त = ज़िंदगी ; नाशाद = दुःखी ]
[हरीरी = रेशमी ; मलबूस = कपड़ा ; सर्द = ठंडा ]
और अब जब कि मेरी रूह की पहनाई में
एक सुनसान सी मग़्मूम घटा छाई है
तू दमकते हुए आरिज़ की शुआयेँ लेकर
गुलशुदा शम्मएँ जलाने को चली आई है
तू दमकते हुए आरिज़ की शुआयेँ लेकर
गुलशुदा शम्मएँ जलाने को चली आई है
[रूह = आत्मा ; सुनसान = अकेला/अकेली ; मग्मूम = दुःखी ]
[घटा = बादल ; आरिज़ = गाल ; शुआयेँ= ज्वाला ]
[गुलशुदा = बुझी हुई ]
मेरी महबूब ये हन्गामा-ए-तजदीद-ए-वफ़ा
मेरी अफ़सुर्दा जवानी के लिये रास नहीं
मैं ने जो फूल चुने थे तेरे क़दमों के लिये
उन का धुंधला-सा तसव्वुर भी मेरे पास नहीं
मैं ने जो फूल चुने थे तेरे क़दमों के लिये
उन का धुंधला-सा तसव्वुर भी मेरे पास नहीं
[महबूब = प्रेमी / प्रेमिका ; तजदीद -ए -वफ़ा = प्यार का नवीनीकरण ]
[अफसुर्दा = कुंठित ; रास = उपयुक्त ]
[क़दमों=पैर ; धुंधला-सा= अस्पष्ट ]
[तसव्वुर = सपना / कल्पना ]
एक यख़बस्ता उदासी है दिल-ओ-जाँ पे मुहीत
अब मेरी रूह में बाक़ी है न उम्मीद न जोश
रह गया दब के गिराँबार सलासिल के तले
मेरी दरमान्दा जवानी की उमन्गों का ख़रोश
अब मेरी रूह में बाक़ी है न उम्मीद न जोश
रह गया दब के गिराँबार सलासिल के तले
मेरी दरमान्दा जवानी की उमन्गों का ख़रोश
[यख़बस्ता = जमा हुआ ; उदासी = दुःख ]
[मुहीत = ढंकने वाला कपड़ा ; बाकी = बचा हुआ ]
[गिराँबार = बहुत ज़्यादा बोझ ]
[सलासिल = जंजीर ; तले = नीचे ]
[दरमान्दा = असहाय ]
[उमंग = जोश ; खरोश = ऊंची आवाज़]
5 Comments:
और अब जब कि मेरी रूह की पहनाई में
एक सुनसान सी मग़्मूम घटा छाई है
तू दमकते हुए आरिज़ की शुआयेँ लेकर
गुलशुदा शम्मएँ जलाने को चली आई है
वाह ! बहुत खूब प्रस्तुति !
Gaurav Pratap जी, एक बेहतरीन ऩज्म पढ कर दिल खुश हो गया । क्या खूब कहा है-
"मेरी महबूब ये हन्गामा-ए-तजदीद-ए-वफ़ा मेरी अफ़सुर्दा जवानी के लिये रास नहीं
मैं ने जो फूल चुने थे तेरे क़दमों के लिये
उन का धुंधला-सा तसव्वुर भी मेरे पास नहीं"
वाह.. बढ़िया रचना.. मेरी नज़र पड़ी साहिर पर.. साहिर की और कई रचनाएं जो मैने नहीं पढ़ी है. उम्मीद है कि उन्हें भी छापेंगे. धन्यवाद
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Regards
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