Monday, May 14, 2007

कल ही गांव से आया हूँ / गौरव प्रताप

कल ही गांव से आया हूँ ,
आँखें नम हैं,
विषाद से नहीं ,
ख़ुशी से ,
हालातों का बदलना ,
कभी भी
इतना सुखद नहीं हुआ,
पर ,
ये सच है ,
कि ,
कल्पनाओं से भी ,
विस्मयकारी होता है ,
सच
और कभी-कभी ,
सुखद भी
मेरे गांव का ,
पछियारी टोला ,
या ,
हाकिमों कि ज़बान में,
नान्ह टोला,
महसूस कर रह है ,
परिवर्तन का ताज़ा झोंका,
अभी कल तक ,
इस टोले का हर किशोर ,
जो ,
सोलहवां वसंत छूता,
उसे मिलता था ,
दिल्ली ,हरियाणा ,पंजाब या गुजरात का टिकट ,
मानों जन्मदिन का उपहार हो
उसे निर्यात कर दिया जाता ,
इन मायावी जमीनों ,
कि कोढ़ बस्तियों में
यकीन ना हो तो पूछ लीजिये ,
पूरे गांव से
पलटू दुसाध ,
जीतन मांझी ,
भदई पासवान
या दरोगा राम ने
भी भेजा है ,
अपने जिगर के ख़ून को ,
रोटी कि उम्मीद मे
एकबार बुद्ध ने पूछा था लोगों से,
"पानी कि कीमत ज़्यादा है या इन्सान के ख़ून की"
उत्तर आज हम शायद भूल गए हैं.
बूढे पीपल ने देखा है ,
आबाद गांव को बदलते ,
बियाबान मे ,
कुश्ती के अखाड़ों को ,
पथराते हुए
कबड्डी की जमीन पर
घास उगते हुए
कानों मे फूत्पाती वॉकमैन ,
आंखों पर चश्मा ,
चिंदी बाजार की जीन्स,
पहन कर हीरो बने छोकरे ,
गांव से ,
फसकर ले जाते थे ,
नए लड़के,
बहेलिओं की तरह
पर यहीं खतम नही होती ,
मेरे गांव कि बात ,
फिरंगी दास का बेटा विजय ,
मेरे गांव का सबसे तेज़ ,
कबड्डी का खिलाडी ,
वापस आया है ,
लुधियाना से ,
कमाकर ,
आँखें धंस गयी है ,
चेहरा सूख गया है ,
छाती कि हड्डियाँ गिनी जा सकती हैं ,
जैसे मौत ने नकार दिया हो
अब कस्मे खाता है ,
कि वापस नही जाऊंगा ,
गांव छोड़कर ,
कि ,
साल भर मे ,
तरस गया था ,
वो ,
फेफडे भर ताजी हवा कि खातिर ,
झोंपडी के पीछे लगे बैंगन कि सब्जी ,
और उसना भात कि खातिर ,
वो कसमें खाता है ,
कि नही जाएगा
वापस
बूढे माँ-बाप को छोड़कर ,
गांव मे ही बंटाई पर खेत ले लेगा ,
या लोन पे ,
गाये लेकर ,
डेयरी मे दूध देगा
फिरंगी दास कि बुढिया ,
आंखो मे मोतियाबिंद लिए ,
उस शाम ,
न्योता दे रही थी ,
पूरे गांव को ,
मूर्ही और गूढ़ के ज्योनार की खातिर ,
की अब वो कुँए पर ,
हर औरत से ,
टोले की संकरी पगडण्डी पर आते ,
हर किसी से कहती है ,
उसका बेटा अब उन दोनो को
छोड़कर कहीँ नहीं जाएगा
वो जल्दी ही उसकी शादी कर देगी ,
और पोते खिलायेगी ,
कुँए पर मिलने वाली ,
हर बुढिया ,
अब जलती है ,
फिरंगी की बहु की किस्मत से ,
क्यूंकि सब चाहती हैं ,
की उसका बेटा वापस आ जाये ,
और दबी जबान मे ही सही,
वो समझायेंगी,
अपने बेटों को.
फिर से ,
आल्हा ,होली ,चिता और बिदेसिया
गाये जायेंगे ,
की अब ,
कोई बुजुर्ग जिंदा नही रहेगा ,
लावारिस की तरह ,
अब किसी सिहोर यादव की लाश ,
नही सदेगी ,
तीन दिनों तक ,
इकलौते बेटे के इंतज़ार मे
हवाएँ बदल रही हैं ,
पर हवाएँ इतनी जल्द बदलेंगी ,
इसकी उम्मीद ना थी ,
पर ये सच है ,
हवाएँ बदल रही हैं
हवाएँ बदल रही हैं
मेरे गांव की.

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