Monday, May 28, 2007

दस्तूर इबादत का दुनिया से निराला हो / दलीप ताहिर


दस्तूर इबादत का दुनिया से निराला हो
इक हाथ में माला हो, इक हाथ में प्याला हो

पूजेंगे सलीक़े से अन्दाज़ मगर अपना
हो याद-ए-ख़ुदा दिल में साक़ी ने सम्भाला हो

मस्ती भी तक़द्दुस भी एक साथ चले दोनों
इक सिम्त हो मैख़ाना, इक सिम्त शिवाला हो

मस्जिद की तरफ़ से तू जाना न कभी साक़ी
ज़ाहिद भी कभी तेरा न चाहनेवाला हो

वो डूब के मर जायें मदिरा की सुराही में
माशूक़ ने गर दिल की महफ़िल से निकाला हो

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