दस्तूर इबादत का दुनिया से निराला हो / दलीप ताहिर
दस्तूर इबादत का दुनिया से निराला हो
इक हाथ में माला हो, इक हाथ में प्याला हो
पूजेंगे सलीक़े से अन्दाज़ मगर अपना
हो याद-ए-ख़ुदा दिल में साक़ी ने सम्भाला हो
मस्ती भी तक़द्दुस भी एक साथ चले दोनों
इक सिम्त हो मैख़ाना, इक सिम्त शिवाला हो
मस्जिद की तरफ़ से तू जाना न कभी साक़ी
ज़ाहिद भी कभी तेरा न चाहनेवाला हो
वो डूब के मर जायें मदिरा की सुराही में
माशूक़ ने गर दिल की महफ़िल से निकाला हो
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home