Tuesday, July 10, 2007

पुरखों की रिवायत है इसे तुम भी निभाओ / परवेज़ बागी




पुरखों की रिवायत है इसे तुम भी निभाओ
प्यासों को समन्दर से बहुत दूर बसाओ

[रिवायत = परम्परा]

यूँ फ़िक्र में हर शख़्स की ख़ुद को न घुलाओ
जीना है तो फिर दिल को भी पत्थर का बनाओ


ये याद रहे ज़ुल्म की हद होती है यारो
तुम हम को सताओ मगर इतना न सताओ

[ हद = सीमा]

हर ख़्वाब-ए-कोहन तिश्ना-ए-तस्वीर है जब तक
तुम कोई नया ख़्वाब न लोगों को दिखाओ

[ख़्वाब-ए-कोहन = पुराना सपना; तिश्ना = प्यास]
[तिश्ना-ए-तस्वीर = महसूस/पूरा होने का इन्तेज़ार ]

जागे हुये सोने पे रज़ामन्द नहीं हैं
सोये हुये लोगों को न 'परवेज़' जगाओ

[रज़ामन्द = राज़ी]

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