चांद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का \ फिराक गोरखपुरी
चांद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का
रंग बदले किसी सूरत शब् -ए -तनहाई का
[जानिब = की ओर ; ज़ेबाई = खूबसूरती ; शब = रात ]
दौलत -ए -लब से फिर आई खुस्राव -ए -शिरीन - दहन
आज रिज़ा हो कोई हर्फ़ शाहान्शाई का
[लब = होठ ; खुसरवी = शाही ; शिरीन = मीठा / मीठी ; दहन = मुँह ]
दीदा -ओ -दिल को संभालो कि सर -ए -शाम "फिराक "
साज़ -ओ -सामान बहम पहुँचा है रुसवाई का
[दीदा -ओ -दिल = आंख और दिल ; बहम = साथ-साथ ]
रंग बदले किसी सूरत शब् -ए -तनहाई का
[जानिब = की ओर ; ज़ेबाई = खूबसूरती ; शब = रात ]
दौलत -ए -लब से फिर आई खुस्राव -ए -शिरीन - दहन
आज रिज़ा हो कोई हर्फ़ शाहान्शाई का
[लब = होठ ; खुसरवी = शाही ; शिरीन = मीठा / मीठी ; दहन = मुँह ]
दीदा -ओ -दिल को संभालो कि सर -ए -शाम "फिराक "
साज़ -ओ -सामान बहम पहुँचा है रुसवाई का
[दीदा -ओ -दिल = आंख और दिल ; बहम = साथ-साथ ]
4 Comments:
प्रेषित रचना अच्छी है।बधाई।
अति सुन्दर। उर्दू शायरी की मिठास देखनी हो तो 'फिराक'...:)
वाह, फिराक साहब को यहाँ लाने के लिये बहुत साधुवाद.
प्रस्तुत रचना का क्या कहना फिराक साहब के एक-2 शब्द ही स्वयं में परिपूर्ण होता है…।बधाई!!
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